Thursday, September 13, 2018

वह कहता था,
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।
खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था *‘कहो’*,
एक में लिखा था *‘सुनो’*।
अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था *‘सुनो’*।
वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।
राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
*वह मीरा हो गई।*
ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
*वह अहिल्या हो गई।*
प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
*वह सीता हो गई।*
चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
*वह सती हो गई।*
घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची,*
जिस पर लिखा था, *‘कहो'*।

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