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Monday, August 3, 2015

Bhagvan ki khoj
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अकबर ने बीरबल के सामने
अचानक एक दिन 3 प्रश्न उछाल दिये। 〰〰〰〰〰〰〰
प्रश्न यह थे -
1) ' भगवान कहाँ रहता है?
2) वह कैसे मिलता है
और
3) वह करता क्या है?''

बीरबल इन प्रश्नों को सुनकर सकपका गये और बोले - ''जहाँपनाह! इन प्रश्नों के उत्तर मैं कल आपको दूँगा।"

जब बीरबल घर पहुँचे तो वह बहुत उदास थे।

उनके पुत्र ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने बताया -

''बेटा! आज बादशाह ने मुझसे एक साथ तीन प्रश्न:
✅ 'भगवान कहाँ रहता है?
✅ वह कैसे मिलता है?
✅ और वह करता क्या है?' पूछे हैं।

मुझे उनके उत्तर सूझ नही रहे हैं और कल दरबार में इनका उत्तर देना है।''

बीरबल के पुत्र ने कहा- ''पिता जी! कल आप मुझे दरबार में अपने साथ ले चलना मैं बादशाह के प्रश्नों के उत्तर दूँगा।''

पुत्र की हठ के कारण बीरबल अगले दिन अपने पुत्र को साथ लेकर दरबार में पहुँचे।

बीरबल को देख कर बादशाह अकबर ने कहा - ''बीरबल मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।

बीरबल ने कहा - ''जहाँपनाह आपके प्रश्नों के उत्तर तो मेरा पुत्र भी दे सकता है।''

अकबर ने बीरबल के पुत्र से पहला प्रश्न पूछा - ''बताओ!

' भगवान कहाँ रहता है?'' बीरबल के पुत्र ने एक गिलास शक्कर मिला हुआ दूध बादशाह से मँगवाया और कहा- जहाँपनाह दूध कैसा है?

अकबर ने दूध चखा और कहा कि ये मीठा है।

परन्तु बादशाह सलामत या आपको इसमें शक्कर दिखाई दे रही है।

बादशाह बोले नही। वह तो घुल गयी।

जी हाँ, जहाँपनाह! भगवान भी इसी प्रकार संसार की हर वस्तु में रहता है।

जैसे शक्कर दूध में घुल गयी है परन्तु वह दिखाई नही दे रही है।

बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा - ''बताओ!

भगवान मिलता केैसे है ?'' बालक ने कहा -

''जहाँपनाह थोड़ा दही मँगवाइए।

'' बादशाह ने दही मँगवाया तो बीरबल के पुत्र ने कहा -

''जहाँपनाह! क्या आपको इसमं मक्खन दिखाई दे रहा है।

बादशाह ने कहा- ''मक्खन तो दही में है पर इसको मथने पर ही दिखाई देगा।''

बालक ने कहा- ''जहाँपनाह! मन्थन करने पर ही भगवान के दर्शन हो सकते हैं।''

बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब अन्तिम प्रश्न का उत्तर पूछा - ''बताओ! भगवान करता क्या है?''

बीरबल के पुत्र ने कहा- ''महाराज! इसके लिए आपको मुझे अपना गुरू स्वीकार करना पड़ेगा।''

अकबर बोले- ''ठीक है, आप गुरू और मैं आप का शिष्य।''

अब बालक ने कहा- ''जहाँपनाह गुरू तो ऊँचे आसन पर बैठता है
और शिष्य नीचे।

'' अकबर ने बालक के लिए सिंहासन खाली कर दिया और स्वयं नीचे बैठ गये।

अब बालक ने सिंहासन पर बैठ कर कहा - ''महाराज! आपके
अन्तिम प्रश्न का उत्तर तो यही है।''

अकबर बोले- ''क्या मतलब? मैं कुछ समझा नहीं।''

बालक ने कहा- ''जहाँपनाह! भगवान यही तो करता है।

"पल भर में राजा को रंक बना देता है और भिखारी को सम्राट बना देता है।"

👍👏

Sunday, August 2, 2015

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा....

अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।

जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।

किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।

ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।

ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।

ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।

किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।

ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।

अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।

सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।

अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।

तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?

यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।

रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?

ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।

ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।

यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।

तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।

ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!

तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।

उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।

इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।

यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।

अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।

श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।
🙏 Must Read 🙏

Friday, July 31, 2015

एक बार एक व्यक्ति किसी के घर गया और अतिथि कक्ष मे बैठ गया।
वह खाली हाथ आया था तो उसने सोचा कि कुछ उपहार देना अच्छा रहेगा। तो उसने वहा टंगा चित्र उतारा और जब घर का स्वामी आया, उसने चित्र देते हुए कहा, यह मै आपके लिए लाया हुँ।

घर का स्वामी , जिसे पता था कि यह मेरी चित्र मुझे ही भेंट दे रहा है, सन्न रह गया...!!

अब आप ही बताएं कि क्या वह भेंट पा कर, जो कि पहले से ही उसका है, उस आदमी को प्रसन्न होना चाहिए ??

मेरे विचार से नहीं....
लेकिन यही चीज हम भगवान के साथ भी करते है। हम उन्हे रूपया, पैसा चढाते है और हर चीज जो उनकी ही बनाई है, उन्हें भेंट करते हैं | लेकिन मन मे भाव रखते है की ये चीज मै भगवान को दे रहा हूँ.., और सोचते हैं कि ईश्वर प्रसन्न हो जाएगें...!!

मूर्ख है हम...
हम यह नहीं समझते कि उनको इन सब चीजो कि आवश्यकता नही..!!

अगर आप सच मे उन्हे कुछ देना चाहते हैं तो अपनी श्रद्धा दीजिए, उन्हे अपने हर एक श्वास मे स्मरण कीजिये और विश्वास मानिए , प्रभु जरुर प्रसन्न होंगे !

चकित हूँ भगवन , तुझे कैसे रिझाऊं मैं,
कोई वस्तु नहीं ऐसी जिसे तुझ पर चढाऊं मैं...!!

भगवान ने उत्तर दिया : "संसार की हर वस्तु तुझे मैनें दी है। तेरे पास अपनी चीज सिर्फ तेरा अहंकार है, जो मैनें नहीं दिया, उसी को तूं मेरे अर्पण कर दे... तेरा जीवन सफल हो जाएगा !"

  🙏🙏🙏
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🙏 जब गुरू के शब्द सुनने हो,
तो कान खोल लेना....
🙏 जब गुरू पे विश्वास करना हो,
तो ऑखे बंद कर लेना......
🙏 जब गुरू को अर्पण करना हो,
तो दिल खोल लेना......
🙏 जब गुरू का प्रवचन सुनना हो,
तो मुख बंद कर लेना........
🙏 जब गुरु की सेवा करनी हो,
तो घडी बंद कर लेना ......
🙏 जब गुरु से विनती करनी हो ,
तो झोली खोल लेना......
🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀
गुरु पूर्णिमा 31 जुलाई को, जानिए क्या है महत्व
 गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर: । गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम: ।। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। हिंदू धर्म में इस पूर्णिमा का विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा 31 जुलाई को मनाई जायेगी|

आपको बता दें कि गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

गुरु पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होते हैं उनके तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते| गुरू पूर्णिमा का स्वरुप बनकर आषाढ़ रुपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है| शिष्य अंधेरे रुपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है| जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन होता है|

गुरु पूर्णिमा महत्व-

गुरु को ब्रह्मा कहा गया है| क्योंकि गुरु ही अपने शिष्य को नया जन्म देता है| गुरु ही साक्षात महादेव है, क्योकि वह अपने शिष्यों के सभी दोषों को माफ करता है| इसलिए इस दिन प्रातः काल स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। उन्हें ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है।