Wednesday, August 27, 2014

badhi

उफनाई है और चढ़ी हैं
दुख से नदियां फूट पड़ी है ।

पहले दिन छोटे लगते थे
अब लगता है रात बड़ी है


बाजारों में प्यार बढ़ा है
घर में पर तक़रार बढ़ी है


महंगे कपडे , लंबी गाड़ी
आंख मगर उजड़ी-उजड़ी है ।

एक झोली भर ख़्वाब मिले हैं
आंखों से तो नींद उड़ी है ।

सपने थक कर घर लौटे हैं
देहरी पर एक आस खड़ी है ।

सबकी मुश्किल हर लेती है
घर के मुखिया की पगड़ी है ।

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