मेहनत की कमाई ...
गुरु नानक देव जी एक गाँव में ठहरे हुए थे l उनके पास एक साधू आया वह नमस्कार करके उनके पास बैठ गया।
गुरु जी ने साधू को आने का कारण पूछा l साधू ने कहा कि गुरुजी मैं भी सत्य और परमात्मा का खोजी हूँ, और मैं परमात्मा को पाने के लिए अपना घर-परिवार, धन-दौलत, ज़मीन-जायजाद सब कुछ त्याग करके सत्य की खोज में निकला हूँ।
नानक देव जी ने कहा की मुझसे क्या चाहते हो ? मेरे पास किसलिए आये हो?
उसने कहा गुरु जी मैंने एक संकल्प किया है कि मैं खाना उसी घर से खाऊंगा जिस घर में ईमानदारी, सच्चाई, और मेहनत की कमाई हो l मैं बेईमान, ठग, चोर, लूटेरों के घर का खाना नहीं खाऊंगा, क्यूंकि अगर मैं पापी आदमी के घर का खाना खाऊंगा तो मैं भी उस पाप का भागीदार बन जाऊंगा। मैंने सुना और पढ़ा है कि जैसा खाऔ अन्न, वैसा बने मन । इसलिए मैं बुरे लोगों के घर का खाना नहीं खाना चाहता, इसिलिए आपके पास आया हूँ क्यूंकि आप तो हर गाँव, नगर, शहर में घूमते रहते हो तो मुझे आस पास कुछ ऐसे लोगों के नाम बता दें ताकि मैं उन्ही लोगों के घरों से खाना मांगकर खा लिया करू ।
सारी बात सुनकर गुरु नानक देव जी ने उससे कुछ बातें कहीं l
सबसे पहली बात, तुम्हे घर-परिवार नहीं छोड़ना था बल्कि अपने अन्दर के विकारों को छोड़ना था। घर-परिवार छोड़ने से कुछ नहीं मिला, लेकिन अन्दर के विकारों को छोड़ने से सब कुछ मिल जाता, क्यूंकि तुम जहाँ पहले रहते थे उसे तुम घर, मकान, महल, कोठी कहते थे उसे तुमने छोड़ दिया लेकिन यहाँ जंगल में भी अपने रहने के लिए कुछ न कुछ बनाओगे ओर उसे तुम कुटिया, झोपडी, आश्रम कहोगे तो इससे क्या फर्क पड़ जायेगा ? घर भी तुमने मौसम के कहर से बचने के लिए बनाया था, झुग्गी ,झोपडी ,आश्रम भी उसी के लिए बनाओगे तो फर्क क्या रहा ? सिर्फ ठिकाने का नाम बदल गया।
दूसरी बात, उधर तुमने बीवी, बच्चे, परिवार, रिश्तेदारों से दुखी हो कर उनको छोड़ा तो क्या हुआ ? इधर जंगल में तुम किसी को गुरु बनाओगे, उस गुरु के शिष्यों को साथी कहोगे और कल तुम अगर गुरु बन जाओगे तो तुम्हारे भी शिष्य और शिष्याएं होगें तो वो तुम्हारा परिवार होंगे। वहां तुम परिवार के दुःख, तकलीफ में दुखी थे यहाँ तुम गुरु, साथी, शिष्य,शिष्याओं के दुःख, तकलीफ में दुखी होओगे । तो फर्क क्या पड़ा जहाँ थे वंही रहे ।
तीसरी बात, तुम्हें सारा दिन ये डर लगा रहता है कि मैं कंही बुरे, पापी व बेईमान आदमी के घर का खाना न खालूं ताकि मैं भी उस पाप का भागीदार ना बन जाऊं, तो बताओ तुम परमात्मा का चिंतन कब करोगे? उसकी बंदगी कब करोगे? तुम्हारे दिन-रात तो रोटी की चिंता में ही ही चले जाते हैं, तुम चिंतन कैसे और कब करोगे ?
इतनी बात सुनकर उसने गुरु नानक देव जी के पैर पकड़ लिए और उनसे परमात्मा की भक्ति का मार्ग मांगते हुए प्रार्थना करने लगा कि वो उसे अपनी शरण में ले लें। गुरुदेव ने उसकी श्रद्धा को देखते हुए उसे परमात्मा से मिलाने का वो अखंड तरीका ब्रह्म- ज्ञान दिया और फिर उसे समझाते हुए कहा कि तुम दुसरों के पाप-पुण्य की चिंता छोडो और खुद मेहनत, मजदूरी, खेती-बाड़ी, व्यापार का काम करो और पैसे कमाओ। उन पैसों से तुम भी खाओ, परिवार को भी खिलाओ। साधू, संत, गरीब और जरुरतमंदो को भी खिलाओ, इससे तुम्हारी पाप की कमाई खाने की चिन्ता भी खत्म हो जाएगी। पर एक बात का ध्यान रखना, इस शरीर से तो तुम काम संसार का करना पर अपने मन को निरंकार परमात्मा में लगा के रखना।
एक बात और
गुरु नानक देव जी ने स्वयं खेती-बाड़ी की, व्यापार किया, दूकान चलायी और यहाँ तक कि जानवर और पशु भी चराए और उन्होंने पूरी इंसानियत को यह सन्देश दिया कि कर्म करो, नाम जपो, सिमरन करो और बाँट कर खाओ।
इस शरीर से तो सांसारिक कर्म करने हैं पर अपने मन और आत्मा को निराकार परमात्मा, वाहेगुरु, अल्लाह, ईश्वर में जोड़कर रखना है, और इस शरीर से कमाई कर उसको परिवार, समाज, दिन-दुखी और गरीबों आदि में बाँट कर खाना ।
गुरु नानक देव जी एक गाँव में ठहरे हुए थे l उनके पास एक साधू आया वह नमस्कार करके उनके पास बैठ गया।
गुरु जी ने साधू को आने का कारण पूछा l साधू ने कहा कि गुरुजी मैं भी सत्य और परमात्मा का खोजी हूँ, और मैं परमात्मा को पाने के लिए अपना घर-परिवार, धन-दौलत, ज़मीन-जायजाद सब कुछ त्याग करके सत्य की खोज में निकला हूँ।
नानक देव जी ने कहा की मुझसे क्या चाहते हो ? मेरे पास किसलिए आये हो?
उसने कहा गुरु जी मैंने एक संकल्प किया है कि मैं खाना उसी घर से खाऊंगा जिस घर में ईमानदारी, सच्चाई, और मेहनत की कमाई हो l मैं बेईमान, ठग, चोर, लूटेरों के घर का खाना नहीं खाऊंगा, क्यूंकि अगर मैं पापी आदमी के घर का खाना खाऊंगा तो मैं भी उस पाप का भागीदार बन जाऊंगा। मैंने सुना और पढ़ा है कि जैसा खाऔ अन्न, वैसा बने मन । इसलिए मैं बुरे लोगों के घर का खाना नहीं खाना चाहता, इसिलिए आपके पास आया हूँ क्यूंकि आप तो हर गाँव, नगर, शहर में घूमते रहते हो तो मुझे आस पास कुछ ऐसे लोगों के नाम बता दें ताकि मैं उन्ही लोगों के घरों से खाना मांगकर खा लिया करू ।
सारी बात सुनकर गुरु नानक देव जी ने उससे कुछ बातें कहीं l
सबसे पहली बात, तुम्हे घर-परिवार नहीं छोड़ना था बल्कि अपने अन्दर के विकारों को छोड़ना था। घर-परिवार छोड़ने से कुछ नहीं मिला, लेकिन अन्दर के विकारों को छोड़ने से सब कुछ मिल जाता, क्यूंकि तुम जहाँ पहले रहते थे उसे तुम घर, मकान, महल, कोठी कहते थे उसे तुमने छोड़ दिया लेकिन यहाँ जंगल में भी अपने रहने के लिए कुछ न कुछ बनाओगे ओर उसे तुम कुटिया, झोपडी, आश्रम कहोगे तो इससे क्या फर्क पड़ जायेगा ? घर भी तुमने मौसम के कहर से बचने के लिए बनाया था, झुग्गी ,झोपडी ,आश्रम भी उसी के लिए बनाओगे तो फर्क क्या रहा ? सिर्फ ठिकाने का नाम बदल गया।
दूसरी बात, उधर तुमने बीवी, बच्चे, परिवार, रिश्तेदारों से दुखी हो कर उनको छोड़ा तो क्या हुआ ? इधर जंगल में तुम किसी को गुरु बनाओगे, उस गुरु के शिष्यों को साथी कहोगे और कल तुम अगर गुरु बन जाओगे तो तुम्हारे भी शिष्य और शिष्याएं होगें तो वो तुम्हारा परिवार होंगे। वहां तुम परिवार के दुःख, तकलीफ में दुखी थे यहाँ तुम गुरु, साथी, शिष्य,शिष्याओं के दुःख, तकलीफ में दुखी होओगे । तो फर्क क्या पड़ा जहाँ थे वंही रहे ।
तीसरी बात, तुम्हें सारा दिन ये डर लगा रहता है कि मैं कंही बुरे, पापी व बेईमान आदमी के घर का खाना न खालूं ताकि मैं भी उस पाप का भागीदार ना बन जाऊं, तो बताओ तुम परमात्मा का चिंतन कब करोगे? उसकी बंदगी कब करोगे? तुम्हारे दिन-रात तो रोटी की चिंता में ही ही चले जाते हैं, तुम चिंतन कैसे और कब करोगे ?
इतनी बात सुनकर उसने गुरु नानक देव जी के पैर पकड़ लिए और उनसे परमात्मा की भक्ति का मार्ग मांगते हुए प्रार्थना करने लगा कि वो उसे अपनी शरण में ले लें। गुरुदेव ने उसकी श्रद्धा को देखते हुए उसे परमात्मा से मिलाने का वो अखंड तरीका ब्रह्म- ज्ञान दिया और फिर उसे समझाते हुए कहा कि तुम दुसरों के पाप-पुण्य की चिंता छोडो और खुद मेहनत, मजदूरी, खेती-बाड़ी, व्यापार का काम करो और पैसे कमाओ। उन पैसों से तुम भी खाओ, परिवार को भी खिलाओ। साधू, संत, गरीब और जरुरतमंदो को भी खिलाओ, इससे तुम्हारी पाप की कमाई खाने की चिन्ता भी खत्म हो जाएगी। पर एक बात का ध्यान रखना, इस शरीर से तो तुम काम संसार का करना पर अपने मन को निरंकार परमात्मा में लगा के रखना।
एक बात और
गुरु नानक देव जी ने स्वयं खेती-बाड़ी की, व्यापार किया, दूकान चलायी और यहाँ तक कि जानवर और पशु भी चराए और उन्होंने पूरी इंसानियत को यह सन्देश दिया कि कर्म करो, नाम जपो, सिमरन करो और बाँट कर खाओ।
इस शरीर से तो सांसारिक कर्म करने हैं पर अपने मन और आत्मा को निराकार परमात्मा, वाहेगुरु, अल्लाह, ईश्वर में जोड़कर रखना है, और इस शरीर से कमाई कर उसको परिवार, समाज, दिन-दुखी और गरीबों आदि में बाँट कर खाना ।
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