Wednesday, December 6, 2017

एक कविता

वह कहता था,
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था *‘कहो’*,
एक में लिखा था *‘सुनो’*।

अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था *‘सुनो’*।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।

वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
*वह मीरा हो गई।*

ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
*वह अहिल्या हो गई।*

प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
*वह सीता हो गई।*

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
*वह सती हो गई।*

तीन बार तलाक कहा तो परित्यक्ता हो गयी         

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।

उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची,*
जिस पर लिखा था, *‘कहो'*।

3 comments:

  1. यह कविता शरद कोकास की है

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  2. कृपया कवि का नाम लिखें

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  3. करेक्शन करें व मुझे सूचना दें ।

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