जागरूक माँ - खुशहाल विवाहिता बेटी
एक सब्जी की दुकान पर जहाँ से मैं अक्सर सब्जियाँ लेता हूँ, जब मैं पहुँचा तो सब्जी वाली महिला फोन पर किसी से बात कर रही थी अत: मैंने कुछ क्षण रुकना ही ठीक समझा, उस महिला ने रुकने का संकेत भी किया तो रुक गया और उसकी बात मेरे कान में भी पड़ रही थी।
वह अपनी उस बेटी से बात कर रही थी जिसकी शादी मात्र तीन चार दिन पहले ही हुई थी।
वह कह रही थी "देखो बेटी मायके की याद आती है यह तो ठीक है लेकिन ससुराल ही अब तुम्हारा अपना घर है"। तुम्हें अब अपना सारा ध्यान केवल अपने घर के लिए ही लगाना है। बार बार फोन मत किया करो और अपने ससुराल वालों से छिपकर तो बिलकुल भी नहीं। जब भी यहाँ फोन करना तो सास या पति के सामने करना।
तुम अपने फोन पर मेरे फोन आने का इंतजार कभी मत करना। मुझे जब भी बात करना होगा तो मैं तुम्हारी सास के नंबर पर लगाऊँगी।तब तुम भी बात कर लिया करना।
बेटी! "अब ससुराल में हो जरा जरा सी बात पर तुनकना छोड़ दो, सहनशक्ति रखो। अपना घर कैसे चलाना है ये सब अपनी सास से सीखो। एक बात ध्यान रखो प्यार एवं इज्जत दोगी तो ही स्नेह और इज्जत पाओगी। ठीक है। सुखी रहो"
मैंने प्रशंसा के भाव में कहा "बहुत सुंदर समझाया आपने"
उस महिला ने कहा कि "बहन एवं माँ को बेटी के परिवार में कभी भी अनावश्यक दखल नहीं देनी चाहिये"। उन्हें अपने घर की बातों को भी बिना मतलब के इधर उधर नहीं करना चाहिये। वहाँ यदि कोई समस्या हो तो समस्या का हल खुद ही ढूँढ़ो।
मैं उस देवी का मुँह देखता रह गया। सभी माँ को इसी तरह से सोचना चाहिए ताकि बेटी अपने ससुराल रूपी घर को खुद का ही घर समझे।
स्वर्ग तो खुद के आचरण, संस्कार, व्यवहार एवं किरदार में छिपा है लेकिन हिरन के समान मृगतृष्णा में भ्रमित हैं और इसी कारण स्वर्ग जैसा घर नरक में तब्दील होकर रह गया होता है।
जागरूक माँ - खुशहाल विवाहिता बेटी
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