Saturday, January 9, 2016

अज़ीज इतना ही रखो....
अज़ीज इतना ही रखो जो हम सम्भल जाए
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए ।

मुहब्बतों में अजब है दिलों का धड़कना सा
न जाने कौनसा रस्ता बदल जाए ।

मैं वो चिराग़-ए-सरे राह गुज़ार देता हूं,
जो अपनी ज़ात की तन्हाइयों में जल जाए ।

हर एक लम्हा यही आरज़ू यही हसरत,
जो आग दिल में है वो शेर में ढल जाए ।

अज़ीज इतना ही रखो जो सम्भल जाए,
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए ।।



 कोई मंज़िल न रास्ता महफ़ूज़
सबको रक्खे मेरा ख़ुदा महफ़ूज़ ।

ग़ैर महफ़ूज़ियत का डर दिल में
रह गया है न जाने क्या महफ़ूज़ ।

रात उस घर में कल भी आएगी
घर में रखना कोई दीया महफ़ूज़ ।

पत्थरों को नज़र नहीं आता
इत्तंफ़ाक़न है आईना महफ़ूज़ ।

मैं कि रौशन रखूँ अँधेरों में
इक दीया अपने नाम का महफ़ूज़ ।।


No comments:

Post a Comment