एक ग़ज़ल।।। बेटियों के हवाले से।।।
इंतेखाब।।।
तेरी मासूम आँखों में शरारत अच्छी लगती है
मेरी दुख्तर मुझे तेरी हर आदत अच्छी लगती है...
ख़ुदा ने बख़्शी जो मुझको ये नेमत अच्छी लगती है
बना हूँ बाप बेटी का ये अज़मत अच्छी लगती है...
जो सर से पाँव तक है वो नज़ाक़त अच्छी लगती है
परी जैसी जो पाई है वो ज़ीनत अच्छी लगती है...
हमल में माँ के जब तू थी तसव्वुर तब भी करता था
मगर अब गोद में आकर हक़ीक़त अच्छी लगती है...
नहीं मिलता है इक पल भी तेरे बिन चैन अब मुझको
अब आठों पहर ही तेरी ये क़ुर्बत अच्छी लगती है...
तुझे देखूँ शफ़क़्क़त से तो ज़िंदा होती इक सुन्नत
ख़ुदा को बाप की तेरे शफ़क़्क़त अच्छी लगती है...
तेरे आने से मैरे घर में जैसे इक बहार आई
ये चारो सिम्त बिखरी जो मुसर्रत अच्छी लगती है...
तुझे चूमूँ तो कुछ एहसास होता है रूहानी सा
बयाँ मैं कर नहीं सकता वो लज़्ज़त अच्छी लगती है...
मेरा चेहरा जो छूती है तू अपने नर्म हाथो से
तेरी नाज़ुक हथेली की नज़ाक़त अच्छी लगती है...
मेरी मूछ-ओ-गफ़र नोचे किसी की क्या मज़ाल आख़िर
मगर अय लाड़ली तेरी ये हरक़त अच्छी लगती है...
शुरू होकर तुझी पे ख़त्म होती है मेरी दुनिया
अगर है ये कोई वहशत तो वहशत अच्छी लगती है...
कुशादा हो गया आने से तेरे रिज़्क़ मेरा भी
तेरी क़िस्मत से रोज़ी की इज़ाफ़त अच्छी लगती है...
ज़रा सी फ़िक्रे फ़र्दा भी मुझे अब आ गई शायद
तेरी ख़ातिर हर इक शय में क़नाअत अच्छी लगती है...
ये मालो ज़र भला क्या चीज़ है मैं जान भी दे दूँ
मैं जब पूरी करूँ तेरी ज़रूरत अच्छी लगती है...
तू सबसे छोटी है फिर भी तू ही मलिका मेरे घर की
रियाया हम तेरी हमको हुकूमत अच्छी लगती है...
तुझे ख़ामोश देखूँ तो लगे है बोझ सा दिल पे
अगर तू चहचहाए तो तबीअत अच्छी लगती है...
वो मेरी ही किसी इक बात पे नाराज़ हो जाना
फिर आकर मुझसे मेरी ही शिकायत अच्छी लगती है...
है मेरी ज़िन्दगी में क्या तेरी क़ीमत ये मैं जानू
तू बस अनमोल है मुझको ये क़ीमत अच्छी लगती है...
मैं सारा दर्द अपना भूल जाता हूँ तेरे ख़ातिर
पसीना जब बहाता हूँ मुशक़्क़त अच्छी लगती है...
लगाकर जब तुझे कंधे सुलाता हूँ मैं रातों को
तो अगली सुब्ह तक तेरी हरारत अच्छी लगती है...
ख़ता पे मेरी जुर्माना लगाती है तू जब झट से
तो पल में फैसला देती अदालत अच्छी लगती है...
जिरह करती है जब मेरी तरफदारी में अम्मी से
तो सारे घर को तेरी वो वकालत अच्छी लगती है...
तू अपनी दादी अम्मी का जब अक्सर सर दबाती है
तो उनके अश्क़ कहते हैं के ख़िदमत अच्छी लगती है...
तेरे दादा फिर वो भी बिठाकर शानों पे
कहते के रिफ़अत अच्छी लगती है...
मुसीबत तुझको कहती हैं कभी जब लाड में नानी
तो अगले पल ही कहती हैं मुसीबत अच्छी लगती है...
रुलाकर एक दिन मुझको पराये घर तू जायेगी
अमीन आख़िर मैं हूँ तेरा अमानत अच्छी लगती है...
तुझे मैं दूर ख़ुद से ज़िन्दगी भर कर नहीं सकता
मगर ये सच है बेटी जब हो रुख़सत अच्छी लगती है...
कभी भी फ़र्क़ बेटे में न बेटी में किया "बिस्मिल"
मुझे पुरखो की अपने ये रवायत अच्छी लगती है...!!!
इंतेखाब।।।
तेरी मासूम आँखों में शरारत अच्छी लगती है
मेरी दुख्तर मुझे तेरी हर आदत अच्छी लगती है...
ख़ुदा ने बख़्शी जो मुझको ये नेमत अच्छी लगती है
बना हूँ बाप बेटी का ये अज़मत अच्छी लगती है...
जो सर से पाँव तक है वो नज़ाक़त अच्छी लगती है
परी जैसी जो पाई है वो ज़ीनत अच्छी लगती है...
हमल में माँ के जब तू थी तसव्वुर तब भी करता था
मगर अब गोद में आकर हक़ीक़त अच्छी लगती है...
नहीं मिलता है इक पल भी तेरे बिन चैन अब मुझको
अब आठों पहर ही तेरी ये क़ुर्बत अच्छी लगती है...
तुझे देखूँ शफ़क़्क़त से तो ज़िंदा होती इक सुन्नत
ख़ुदा को बाप की तेरे शफ़क़्क़त अच्छी लगती है...
तेरे आने से मैरे घर में जैसे इक बहार आई
ये चारो सिम्त बिखरी जो मुसर्रत अच्छी लगती है...
तुझे चूमूँ तो कुछ एहसास होता है रूहानी सा
बयाँ मैं कर नहीं सकता वो लज़्ज़त अच्छी लगती है...
मेरा चेहरा जो छूती है तू अपने नर्म हाथो से
तेरी नाज़ुक हथेली की नज़ाक़त अच्छी लगती है...
मेरी मूछ-ओ-गफ़र नोचे किसी की क्या मज़ाल आख़िर
मगर अय लाड़ली तेरी ये हरक़त अच्छी लगती है...
शुरू होकर तुझी पे ख़त्म होती है मेरी दुनिया
अगर है ये कोई वहशत तो वहशत अच्छी लगती है...
कुशादा हो गया आने से तेरे रिज़्क़ मेरा भी
तेरी क़िस्मत से रोज़ी की इज़ाफ़त अच्छी लगती है...
ज़रा सी फ़िक्रे फ़र्दा भी मुझे अब आ गई शायद
तेरी ख़ातिर हर इक शय में क़नाअत अच्छी लगती है...
ये मालो ज़र भला क्या चीज़ है मैं जान भी दे दूँ
मैं जब पूरी करूँ तेरी ज़रूरत अच्छी लगती है...
तू सबसे छोटी है फिर भी तू ही मलिका मेरे घर की
रियाया हम तेरी हमको हुकूमत अच्छी लगती है...
तुझे ख़ामोश देखूँ तो लगे है बोझ सा दिल पे
अगर तू चहचहाए तो तबीअत अच्छी लगती है...
वो मेरी ही किसी इक बात पे नाराज़ हो जाना
फिर आकर मुझसे मेरी ही शिकायत अच्छी लगती है...
है मेरी ज़िन्दगी में क्या तेरी क़ीमत ये मैं जानू
तू बस अनमोल है मुझको ये क़ीमत अच्छी लगती है...
मैं सारा दर्द अपना भूल जाता हूँ तेरे ख़ातिर
पसीना जब बहाता हूँ मुशक़्क़त अच्छी लगती है...
लगाकर जब तुझे कंधे सुलाता हूँ मैं रातों को
तो अगली सुब्ह तक तेरी हरारत अच्छी लगती है...
ख़ता पे मेरी जुर्माना लगाती है तू जब झट से
तो पल में फैसला देती अदालत अच्छी लगती है...
जिरह करती है जब मेरी तरफदारी में अम्मी से
तो सारे घर को तेरी वो वकालत अच्छी लगती है...
तू अपनी दादी अम्मी का जब अक्सर सर दबाती है
तो उनके अश्क़ कहते हैं के ख़िदमत अच्छी लगती है...
तेरे दादा फिर वो भी बिठाकर शानों पे
कहते के रिफ़अत अच्छी लगती है...
मुसीबत तुझको कहती हैं कभी जब लाड में नानी
तो अगले पल ही कहती हैं मुसीबत अच्छी लगती है...
रुलाकर एक दिन मुझको पराये घर तू जायेगी
अमीन आख़िर मैं हूँ तेरा अमानत अच्छी लगती है...
तुझे मैं दूर ख़ुद से ज़िन्दगी भर कर नहीं सकता
मगर ये सच है बेटी जब हो रुख़सत अच्छी लगती है...
कभी भी फ़र्क़ बेटे में न बेटी में किया "बिस्मिल"
मुझे पुरखो की अपने ये रवायत अच्छी लगती है...!!!
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