Tuesday, February 24, 2015

ईश्वर की अदभुत कृति "माँ" पर कुछ पंक्तियाँ...

जब आंख खुली तो माँ की
गोदी का एक सहारा था
उसका नन्‍हा सा आंचल मुझको
भूमण्‍डल से प्‍यारा था

उसके चेहरे की झलक देख
चेहरा फूलों सा खिलता था
उसके स्‍तन की एक बूंद से
मुझको जीवन मिलता था

हाथों से बालों को नोंचा
पैरों से खूब प्रहार किया
फिर भी उस माँ ने पुचकारा
हमको जी भर के प्‍यार किया

मैं उसका राजा बेटा था
वो आंख का तारा कहती थी
मैं बनू बुढ़ापे में उसका
बस एक सहारा कहती थी

उंगली को पकड़ चलाया था
पढने विद्यालय भेजा था
मेरी नादानी को भी निज
अन्‍तर में सदा सहेजा था

मेरे सारे प्रश्‍नों का वो
फौरन जवाब बन जाती थी
मेरी राहों के काँटे चुन
वो खुद गुलाब बन जाती थी

मैं बड़ा हुआ तो कॉलेज से
इक रोग प्‍यार का ले आया
जिस दिल में माँ की मूरत थी
वो रामकली को दे आया

शादी की पति से बाप बना
अपने रिश्‍तों में झूल गया
अब करवाचौथ मनाता हूँ
माँ की ममता को भूल गया

हम भूल गये उसकी ममता
मेरे जीवन की थाती थी
हम भूल गये अपना जीवन
वो अमृत वाली छाती थी

हम भूल गये वो खुद भूखी
रह करके हमें खिलाती थी
हमको सूखा बिस्‍तर देकर
खुद गीले में सो जाती थी

हम भूल गये उसने ही
होठों को भाषा सिखलायी थी
मेरी नीदों के लिए रात भर
उसने लोरी गायी थी

हम भूल गये हर गलती पर
उसने डांटा समझाया था
बच जाउ बुरी नजर से
काला टीका सदा लगाया था

हम बड़े हुए तो ममता वाले
सारे बन्‍धन तोड़ आए
बंगले में कुत्‍ते पाल लिए
मां को वृद्धाश्रम छोड आए

उसके सपनों का महल गिरा कर
कंकर-कंकर बिन लिए
खुदग़र्जी में उसके सुहाग के
आभूषण तक छीन लिए

हम माँ को घर के बंटवारे की
अभिलाषा तक ले आए
उसको पावन मंदिर से
गाली की भाषा तक ले आए

मां की ममता को देख मौत भी
आगे से हट जाती है
गर माँ अपमानित होती
धरती की छाती फट जाती है

घर को पूरा जीवन देकर
बेचारी माँ क्‍या पाती है
रूखा सूखा खा लेती है
पानी पीकर सो जाती है

जो माँ जैसी देवी घर के
मंदिर में नहीं रख सकते हैं
वो लाखों पुण्‍य भले कर लें
इंसान नहीं बन सकते हैं

माँ जिसको भी जल दे दे
वो पौधा संदल बन जाता है
माँ के चरणों को छूकर पानी
गंगाजल बन जाता है

माँ के आंचल ने युगों-युगों से
भगवानों को पाला है
माँ के चरणों में जन्‍नत है
गिरिजाघर और शिवाला है

हिमगिरि जैसी उंचाई है
सागर जैसी गहराई है
दुनियां में जितनी खुशबू है
माँ के आंचल से आई है

माँ कबिरा की साखी जैसी
माँ तुलसी की चौपाई है
मीराबाई की पदावली
खुसरो की अमर रूबाई है

माँ आंगन की तुलसी जैसी
पावन बरगद की छाया है
माँ वेद ऋचाओं की गरिमा
माँ महाकाव्‍य की काया है

माँ मानसरोवर ममता का
माँ गोमुख की उंचाई है
माँ परिवारों का संगम है
माँ रिश्‍तों की गहराई है

माँ हरी दूब है धरती की
माँ केसर वाली क्‍यारी है
माँ की उपमा केवल मां है
माँ हर घर की फुलवारी है

सातों सुर नर्तन करते जब
कोई माँ लोरी गाती है
माँ जिस रोटी को छू लेती है
वो प्रसाद बन जाती है

माँ हंसती है तो धरती का
ज़र्रा-ज़र्रा मुस्‍काता है
देखो तो दूर क्षितिज अंबर
धरती को शीश झुकाता है

माना मेरे घर की दीवारों में
चन्‍दा सी मूरत है
पर मेरे मन के मंदिर में
बस केवल माँ की मूरत है

माँ सरस्‍वती लक्ष्‍मी दुर्गा
अनुसूया मरियम सीता है
माँ पावनता में रामचरित
मानस है भगवत गीता है

माँ तेरी हर बात मुझे
वरदान से बढकर लगती है
हे माँ तेरी सूरत मुझको
भगवान से बढकर लगती है

सारे तीरथ के पुण्‍य जहां
मैं उन चरणों में लेटा हूं
जिनके कोई सन्‍तान नहीं
मैं उन मांओं का बेटा हूं

हर घर में माँ की पूजा हो
ऐसा संकल्‍प उठाता हूं
मैं दुनियां की हर माँ के
चरणों में ये शीश झुकाता हूँ।

हे माँ तुझे सत सत नमन।

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