Tuesday, June 23, 2015

हमारे शहर में ये दर्द की बारात कैसी है,
मेरे आंसू नहीं निकले, फिर बरसात कैसी है,
मेरा चाँद जब शामिल है साज़िश की कहानी में,
तो फिर मैं क्या बताऊँ मेरे घर की रात कैसी है,
बुरे दौरों में अक्सर हाथ सबका छोड़ देते हैं,
तुम्हारे शहर में ये दोस्तों की जात कैसी है,
ये चर्चा तितलियों की महफ़िलों में रोज़ होता है,
हवाओं के वदन पे इश्क़ की सौगात कैसी है,
कोई बहका हुआ राजा जिधर भी मोड़ दे ऊँगली,
उधर का रुख पकड़ लेती है ये जमात कैसी है,
ये माना मुद्द्तों पहले भुला बैठा है तू मुझको,
तो तेरी महफ़िलों में फिर हमारी बात कैसी है,
मुझे ताउम्र तन्हाई की दौलत ही मिली अक्सर,
ये वक़्त-ए-रुखसती पे भीड़ मेरे साथ कैसी है,
किसी से पूछ लेने की ज़रुरत ही नहीं होगी ,
आइना खुद बता देगा तू मेरे बाद कैसी है,


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