Sunday, March 27, 2016

जिन्दगीकी दौड़में



एक डलिया में संतरे बेचती बूढ़ी औरत से एक युवा अक्सर संतरे खरीदता।

अक्सर, खरीदे संतरों से एक संतरा निकाल उसकी एक फाँक चखता और कहता, "ये कम मीठा लग रहा है, देखो!"

बूढ़ी औरत संतरे को चखती और प्रतिवाद करती

"ना बाबू मीठा तो है!"

वो उस संतरे को वही छोड़, बाकी संतरे ले गर्दन झटकते आगे बढ़ जाता।

युवा अक्सर अपनी पत्नी के साथ होता था, एक दिन पत्नी नें पूछा

"ये संतरे हमेशा मीठे ही होते हैं, पर यह नौटंकी तुम हमेशा क्यों करते हो?"

युवा ने पत्नी को एक मघुर मुस्कान के साथ बताया

"वो बूढ़ी माँ संतरे बहुत मीठे बेचती है, पर खुद कभी नहीं खाती, इस तरह उसे मै संतरे खिला देता हूँ!

एक दिन, बूढ़ी माँ से, उसके पड़ोस में सब्जी बेचनें वाली औरत ने सवाल किया,

" ये झक्की लड़का संतरे लेते इतनी चख चख करता है, पर संतरे तौलते मै तेरे पलड़े देखती हूँ,
तू हमेशा उसकी चख चख में, उसे जादा संतरे तौल देती है "

बूढ़ी माँ नें साथ सब्जी बेचने वाली से कहा

"उसकी चख चख संतरे के लिए नहीं, मुझे संतरा खिलानें को लेकर होती है!

मै बस उसका प्रेम देखती हूँ, पलड़ो पर संतरे अपनें आप बढ़ जाते हैं!"


प्रेम की अपनी भाषा है, प्रेम की अपनी शक्ति है, निस्वार्थ भाव से दिया गया प्रेम स्वयं बढ़कर हमारी और आता है!

जिन्दगीकी दौड़में, तजुर्बा कच्चा ही रह गया...

हम सीख न पाये फरेब दिल बच्चा ही रह गया!

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