Tuesday, March 29, 2016

हर इक लम्हे की रग में...

हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है;
वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है;
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ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र;
कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है;
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मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी;
कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है
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मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं;
निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।
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