Sunday, September 18, 2016

★★खुदको ढूँढ़ता आदमी ★★

◆◆औसत ७० बरस की उम्र और आधा सफ़र खत्म हो गया ।

एक मासुम सा मन देखो,रिश्तों के मेले में कहीं खो गया । ◆◆

       
◆◆चहरे पर हल्की सी काली, ठीक उसके आँखों के नीचे ।

न जाने कितने जंग वो लड़ता रोज़,रख अपनी तकलीफों को पीछे । ◆◆
       
◆◆सर से बाल झड़ने लगे हैं उसके और कुछ सफ़ेद हो गए ।

ज़िंदगी की जदोजहद में,उसके खुदके सपने कहीं खो गए । ◆◆

◆◆कोई पति, कोई बेटा, कोई पापा उसे बुलाता है ।

छाह कर भी वो खुदका अस्तित्व लेकिन खोज नहीं पाता है । ◆◆

◆◆कुछ शब्द् मेरे अर्पित बस उस इंसान के लिए ।

जिसने झुल्साए अपने दिन, परिवार की अच्छी शाम के लिए ।◆◆

◆◆गिरता है रोज़,रोज़ फिर खड़ा हो जाता है ।

न जाने वो मासुम मन कब इतना बड़ा हो जाता है । ◆◆

◆◆बच्चों की फ़रमाईश,"छुट्टी यहाँ मनाना है "।

क्या खबर उनको,इसके खातिर पापा को कितने धक्के खाना है ।◆◆

◆◆घर के दरवाज़े पर पहुँचते ही, बीवी शुरू हो जाती है ।

पानी को कौन पूँछे, पहले दिन भर का किस्सा सुनाती है । ◆◆

◆◆माँ- बाप भी रहते आँखें लगाए, बेटा हमसे भी बतियायेगा ।

बस वही एक ही बात फिर से," बेटा तू कब हमें तिर्थ ले जायेगा ।◆◆

◆◆बेटा भी हल्की सी मुस्कान लेकर कहता,"ले जाऊँगा अम्मा बाबा ।

"कुछ वक़्त की मोह्लत दे दो,ख़त्म करु रोज़ का पहले शोर शराबा "। ◆◆

◆◆बिस्तर पर पड़ते ही,सो जाता है कुछ सवालों को कल पर टालकर ।

शरीर को रख सिर्फ जिंदा,खुदको कहीं हर रोज़ मारकर ।◆◆

◆◆कल सुबह आखिर उसे फिर एक नई जंग जो लड़ना है ।

अम्मा,बाबा,बीवी,बच्चे, इनके सपने उसे जो पुरे करना है । ◆◆

...सपने उसे जो पुरे करना है ।

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