*करवाचौथ कथा*
वैसे तो हमारा बहुत कम ही झगड़ा होता था पर उस रोज़ किस बात पे हुआ हमें बिलकुल भी याद नहीं। बस इतना याद है कि ना प्राची हमसे बात कर रही थी और ना हम प्राची से। वजह शायद हमारी भूलने की बीमारी ही थी। हमें ठीक से याद नहीं।
प्राची पड़ोसन थी हमारी। हमारे चक्कर को दो साल होने को थे और इन दो सालों में हमने इतना तो जान ही लिया था कि प्राची भूखी नहीं रह पाती। पिछले साल हमने उसे बस इसीलिए डाँटा था कि बिन बियाह के हमारे लिए करवाचौथ का व्रत रखी हुई थी। पर वो मानती ही नहीं थी। पिछले साल तो पाँच रुपए वाली डेरीमिल्क से व्रत तोड़वाया था उसका।
जो लड़की खाए बिना एक घंटा नहीं रह सकती उस लड़की के लिए बिन पानी पिए करवा व्रत बर्दाश्त करना मल्लब असम्भव सी बात थी। वो फ़्लपी थी। गोलू मोलू सी। मेरा पर्सनल टेडीबीयर। ना डायटिंग का शौक़ था ना हेल्थ कोंसेस होने का दिखावा।
पर इस साल तो हमारा झगड़ा हो गया था। नवम्बर स्टार्ट की जिंगाट सर्दी और ये करवाचौथ का व्रत। क़हर था साहब क़हर।
अब करवा वरवा क्या होता है हमसे क्या मतलब? हम निकल गए सीनियर तेवारी जी के साथ ठेका पे। छः पेग टाइट होने के बाद भरी नमकीन के पैकेट में से नमकीन ढूँढते हुए बोले,
“कुछ भी हो जाए साला बियाह मत करना! सारी आज़ादी बंद हो जाएगी तुम्हारी!”
“अच्छा! अपना तो कूद के कर लिए। वो भी लवमैरिज” (हमने घूँट मारते हुए जवाब दिया)
“कर लिए तभी तो बता रहे हैं..” (तेवारी जी ने अपना दुःख कंठ मे समेटते हुए कहा)
“क्यों? क्या हुआ?” (हमने फिर से सवाल किया)
“अब सुबह से सुधा करवाचौथ का व्रत है। और चाहती थी कि हम भी रहें। अब बताओ यार हम रहेंगे तो मम्मी क्या बोलेंगी? क्या सोचेंगी? कहेंगी कि सन्तोसवा तो मेहंन्दरा हो गया है। एक्को बार बोली भी नहीं और चाहती है कि हम सब समझ भी जाएँ! बताओ भला होता है ऐसा कभी?” (तेवारी जी ने ओम् पुरी के अन्दाज़ मे एक झोंके मे अपनी गाथा गा दी!)
साला करवा चौथ सुनते ही हमारा माथा टनक गया। हमने आश्चर्यचकित मुद्रा में कहा “आज करवा है?” और ठेके से बाहर निकलने लगे। जाते जाते तेवारी जी को धीरे से बोले: “एक्को बार बोली भी नहीं और चाहती है कि हम सब समझ भी जाएँ! तो लड़कियों की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है भैया। ये मल्लब इनबिल्ड है” और निकल लिए। तेवारी जी आवाज़ देते रहे पर हमने एक ना सुनी।
मुटरसाइकिल स्टार्ट की और फरफ़राते हुए घर पहुँचे। टाईम देखे तो साढ़े दस होने को थे।
हम तड़तड़ा के छत की तरफ भागे। और ऊपर पहुँच के गेट के पास खड़े हो गए और अंदर से झाँकने लगे। सामने नजा रा वही था जैसा हमने सोचा था। मख़मल का कुर्ता पहने और रेशम का शोल चढ़ाए मैडम कभी आसमान में चाँद को निहारती कभी हमारी छत की तरफ़। नीचे से उनकी मम्मी अवधी में आवाज़ लगायी जा रही थीं, “प्राचिया! चाँद निकला के नाय?(प्राची चाँद निकला की नहीं?)”
“नाहीं मम्मी! अब्बय नाय! (नहीं मम्मी अभी नहीं!)
“का जानि कब निकलेगा! पापौ नहीं आए अबहिन तक तोहरे(क्या पता कब निकलेगा! पापा भी नहीं आए अभी तक तुम्हारे!)”
पता नही दुनिया को चाँद की क्या ज़रूरत थी जबकि प्राची तो इस जहान में मौजूद ही थी। प्राची बार बार आसमान में देखती और फिर बार बार मेरे छत के गेट पे। कुछ देर हम उसे ख़ुद का इंतजार करते हुए निहारते रहे और फिर हमने गेट खोल ही दिया।
“रे प्राचिया! चाँद निकला के नाय?” (उसकी मम्मी ने फिर से वही सवाल दोहराया)
“हाँ मम्मी निकल आवा चाँद”(हाँ मम्मी निकल आया चाँद) प्राची ने छत के जाल से एक टक़ हमको देखते हुए कहा।
“मेरा माल!” (हमने मस्कुरा के बुदबुदा के कहा)
इतनी में आंटी दौड़ते भागते छत पे आगयी।
ऊपर देखा तो चाँद नदारद था। और प्राची की नज़रें हमारी छत पे। प्राची के सर पे हल्के से हाथ मरते हुए अंटी ने कहा
“सुबह से भूखी हयी, दुई दावँ नहायेन है। जड़ात हई और तोहें मज़ाक़ सूझत बा(सुबह से भूखे हैं, दो बार नहा चुके हैं, जाड़ा लग रहा है और तुम्हें मज़ाक़ सूझ रहा है!)”
आंटी ने हमको देखा और कहा
“भाइया निकले के ना निकले चाँद?(बेटा चाँद निकलेगा कि नहीं?)”
“अभी तो निकला था आंटी, फिर छुप गया।”
“हाँ हमका देखतय लुकाए गा कहूँ!(हाँ हमको देखते ही छिप गया कहीं) कहकर आंटी वापस नीचे चली गयीं।
प्राची ने हमारी तरफ़ झूठे ग़ुस्से वाली अदा बिखेरते हुए कहा “हुँह” हम मुस्कुराए और जेब से एक पैकेट निकाल के उसकी छत पे फ़ेक दिए। पैकेट खोल के वो जोर से हँसी। पैकेट खोला तो उसमें मीठा पान था। अपने दुपट्टे की आँड़ से हमको देखी और पान चबाने लगी।
हमने दिल पे दोनो हाथ रख के उसके क़ातिल होने का इशारा किया। और वो हुँह करते हुए दोबारा क़त्ल कर गयी।
इतने में हमारा छोटा भाई छत पे आया और बोला कि “भैया तेवारी भैया बार बार फ़ोन कर रहे हैं!” हम भाग के नीचे पहुँचे। वापस काल किया तो तेवारी जी बोले
"यार आज तो हम तुम्हारे भरोसे दारू पीने आए थे हम और तुम चले गए। पईसा नहीं है हमारे पास।
ये सब हमको जाने नहीं दे रहे और वहाँ सुधा बेचारी भूखी प्यासी मेरा इंतज़ार कर रही है।”
सुधा भाभी का नाम ना लेते तेवारी जी तो घण्टा ना जाते ठेके पे हम। पर भाभी बहुत मानती थीं हमको तो जाना पड़ा।
हमने मुटरसाइकिल स्टार्ट की और ठेका पहुँच के तेवारी जी की ज़मानत ली। पीछे बैकग्राउण्ड में गाना बज रहा था..
“पान खाए सइयाँ हमारो! मख़मल के कुर्ता और होंठ लाल लाल। पान खाए सइयाँ हमारो।”
करवा मुबारक!
वैसे तो हमारा बहुत कम ही झगड़ा होता था पर उस रोज़ किस बात पे हुआ हमें बिलकुल भी याद नहीं। बस इतना याद है कि ना प्राची हमसे बात कर रही थी और ना हम प्राची से। वजह शायद हमारी भूलने की बीमारी ही थी। हमें ठीक से याद नहीं।
प्राची पड़ोसन थी हमारी। हमारे चक्कर को दो साल होने को थे और इन दो सालों में हमने इतना तो जान ही लिया था कि प्राची भूखी नहीं रह पाती। पिछले साल हमने उसे बस इसीलिए डाँटा था कि बिन बियाह के हमारे लिए करवाचौथ का व्रत रखी हुई थी। पर वो मानती ही नहीं थी। पिछले साल तो पाँच रुपए वाली डेरीमिल्क से व्रत तोड़वाया था उसका।
जो लड़की खाए बिना एक घंटा नहीं रह सकती उस लड़की के लिए बिन पानी पिए करवा व्रत बर्दाश्त करना मल्लब असम्भव सी बात थी। वो फ़्लपी थी। गोलू मोलू सी। मेरा पर्सनल टेडीबीयर। ना डायटिंग का शौक़ था ना हेल्थ कोंसेस होने का दिखावा।
पर इस साल तो हमारा झगड़ा हो गया था। नवम्बर स्टार्ट की जिंगाट सर्दी और ये करवाचौथ का व्रत। क़हर था साहब क़हर।
अब करवा वरवा क्या होता है हमसे क्या मतलब? हम निकल गए सीनियर तेवारी जी के साथ ठेका पे। छः पेग टाइट होने के बाद भरी नमकीन के पैकेट में से नमकीन ढूँढते हुए बोले,
“कुछ भी हो जाए साला बियाह मत करना! सारी आज़ादी बंद हो जाएगी तुम्हारी!”
“अच्छा! अपना तो कूद के कर लिए। वो भी लवमैरिज” (हमने घूँट मारते हुए जवाब दिया)
“कर लिए तभी तो बता रहे हैं..” (तेवारी जी ने अपना दुःख कंठ मे समेटते हुए कहा)
“क्यों? क्या हुआ?” (हमने फिर से सवाल किया)
“अब सुबह से सुधा करवाचौथ का व्रत है। और चाहती थी कि हम भी रहें। अब बताओ यार हम रहेंगे तो मम्मी क्या बोलेंगी? क्या सोचेंगी? कहेंगी कि सन्तोसवा तो मेहंन्दरा हो गया है। एक्को बार बोली भी नहीं और चाहती है कि हम सब समझ भी जाएँ! बताओ भला होता है ऐसा कभी?” (तेवारी जी ने ओम् पुरी के अन्दाज़ मे एक झोंके मे अपनी गाथा गा दी!)
साला करवा चौथ सुनते ही हमारा माथा टनक गया। हमने आश्चर्यचकित मुद्रा में कहा “आज करवा है?” और ठेके से बाहर निकलने लगे। जाते जाते तेवारी जी को धीरे से बोले: “एक्को बार बोली भी नहीं और चाहती है कि हम सब समझ भी जाएँ! तो लड़कियों की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है भैया। ये मल्लब इनबिल्ड है” और निकल लिए। तेवारी जी आवाज़ देते रहे पर हमने एक ना सुनी।
मुटरसाइकिल स्टार्ट की और फरफ़राते हुए घर पहुँचे। टाईम देखे तो साढ़े दस होने को थे।
हम तड़तड़ा के छत की तरफ भागे। और ऊपर पहुँच के गेट के पास खड़े हो गए और अंदर से झाँकने लगे। सामने नजा रा वही था जैसा हमने सोचा था। मख़मल का कुर्ता पहने और रेशम का शोल चढ़ाए मैडम कभी आसमान में चाँद को निहारती कभी हमारी छत की तरफ़। नीचे से उनकी मम्मी अवधी में आवाज़ लगायी जा रही थीं, “प्राचिया! चाँद निकला के नाय?(प्राची चाँद निकला की नहीं?)”
“नाहीं मम्मी! अब्बय नाय! (नहीं मम्मी अभी नहीं!)
“का जानि कब निकलेगा! पापौ नहीं आए अबहिन तक तोहरे(क्या पता कब निकलेगा! पापा भी नहीं आए अभी तक तुम्हारे!)”
पता नही दुनिया को चाँद की क्या ज़रूरत थी जबकि प्राची तो इस जहान में मौजूद ही थी। प्राची बार बार आसमान में देखती और फिर बार बार मेरे छत के गेट पे। कुछ देर हम उसे ख़ुद का इंतजार करते हुए निहारते रहे और फिर हमने गेट खोल ही दिया।
“रे प्राचिया! चाँद निकला के नाय?” (उसकी मम्मी ने फिर से वही सवाल दोहराया)
“हाँ मम्मी निकल आवा चाँद”(हाँ मम्मी निकल आया चाँद) प्राची ने छत के जाल से एक टक़ हमको देखते हुए कहा।
“मेरा माल!” (हमने मस्कुरा के बुदबुदा के कहा)
इतनी में आंटी दौड़ते भागते छत पे आगयी।
ऊपर देखा तो चाँद नदारद था। और प्राची की नज़रें हमारी छत पे। प्राची के सर पे हल्के से हाथ मरते हुए अंटी ने कहा
“सुबह से भूखी हयी, दुई दावँ नहायेन है। जड़ात हई और तोहें मज़ाक़ सूझत बा(सुबह से भूखे हैं, दो बार नहा चुके हैं, जाड़ा लग रहा है और तुम्हें मज़ाक़ सूझ रहा है!)”
आंटी ने हमको देखा और कहा
“भाइया निकले के ना निकले चाँद?(बेटा चाँद निकलेगा कि नहीं?)”
“अभी तो निकला था आंटी, फिर छुप गया।”
“हाँ हमका देखतय लुकाए गा कहूँ!(हाँ हमको देखते ही छिप गया कहीं) कहकर आंटी वापस नीचे चली गयीं।
प्राची ने हमारी तरफ़ झूठे ग़ुस्से वाली अदा बिखेरते हुए कहा “हुँह” हम मुस्कुराए और जेब से एक पैकेट निकाल के उसकी छत पे फ़ेक दिए। पैकेट खोल के वो जोर से हँसी। पैकेट खोला तो उसमें मीठा पान था। अपने दुपट्टे की आँड़ से हमको देखी और पान चबाने लगी।
हमने दिल पे दोनो हाथ रख के उसके क़ातिल होने का इशारा किया। और वो हुँह करते हुए दोबारा क़त्ल कर गयी।
इतने में हमारा छोटा भाई छत पे आया और बोला कि “भैया तेवारी भैया बार बार फ़ोन कर रहे हैं!” हम भाग के नीचे पहुँचे। वापस काल किया तो तेवारी जी बोले
"यार आज तो हम तुम्हारे भरोसे दारू पीने आए थे हम और तुम चले गए। पईसा नहीं है हमारे पास।
ये सब हमको जाने नहीं दे रहे और वहाँ सुधा बेचारी भूखी प्यासी मेरा इंतज़ार कर रही है।”
सुधा भाभी का नाम ना लेते तेवारी जी तो घण्टा ना जाते ठेके पे हम। पर भाभी बहुत मानती थीं हमको तो जाना पड़ा।
हमने मुटरसाइकिल स्टार्ट की और ठेका पहुँच के तेवारी जी की ज़मानत ली। पीछे बैकग्राउण्ड में गाना बज रहा था..
“पान खाए सइयाँ हमारो! मख़मल के कुर्ता और होंठ लाल लाल। पान खाए सइयाँ हमारो।”
करवा मुबारक!
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