गीत जो थे दिल के बेहद करीब, अब उन्हें गुनगुनाना छोड़ दिया हमने I
महफिलों में जाकर घुलना -मिलना, हंसना -हंसाना छोड़ दिया हमने II
जिनके रुठते ही सांस थमने लगती थी उन्हें मनाना छोड़ दिया हमने I
उलझनों में फिर उलझना चाहतें है, उन्हें सुलझाना छोड़ दिया हमने II
बेकद्री है इश्क-मोहब्बत की जहाँ, किससे गिला और किससे शिकवा,
कितने खाए जख्म कितनी चोटें लगी हिसाब लगाना छोड़ दिया हमने I
ख्वाहिशें ओस की बूंदों की तरह जन्म लेती रहीं जाने कब सिमट भी गई,
हुआ जब सामना सच्चाई से तो आईना देखना दिखाना छोड़ दिया हमने I
हमारा प्यार ही तो था हमारी लिए तकदीर हमारी और प्यार ही खुदा भी,
झुक जाता था जो कभी उसके सज़दे में वो सर झुकाना छोड़ दिया हमने I
कसम से बड़ा ही गुरुर था बड़ा नाज़ था हमें वफाओं पर और ऐतबार भी,
टूटा जब दिल, दिल की गहराइयों से तो खुद पर इतराना छोड़ दिया हमने I
न ताकत न रुतबा न पैसा, कमजोर थे इसलिए ही डरते थे जिन्दगी से,
बचा-खुचा मान भी जाता रहा अब क्या डर, सो डरना डराना छोड़ दिया हमने I
काली रातों के घने अँधेरे, उजालों से कहीं बेहतर लगने लगे हमें अब तो,
रास्ते जो घूम कर जाते थे मन्जिल पे, उन पर आना जाना छोड़ दिया हमने I
दिल की बाज़ी तो हमने भी लगाईं थी कभी बड़े दिल से दिल देकर उनको,
मगर क्या मिला, बस दर्द-ए-दिल, तो यहीं पर ये फ़साना छोड़ दिया हमने I
मेरी शायरी मेरी गजलों में न मिलेगी पहले सी ताज़गी अब कभी “चरन ”
असली चेहरा सामने है, अब शराफत का वो ढोंग रचाना छोड़ दिया हमने II
महफिलों में जाकर घुलना -मिलना, हंसना -हंसाना छोड़ दिया हमने II
जिनके रुठते ही सांस थमने लगती थी उन्हें मनाना छोड़ दिया हमने I
उलझनों में फिर उलझना चाहतें है, उन्हें सुलझाना छोड़ दिया हमने II
बेकद्री है इश्क-मोहब्बत की जहाँ, किससे गिला और किससे शिकवा,
कितने खाए जख्म कितनी चोटें लगी हिसाब लगाना छोड़ दिया हमने I
ख्वाहिशें ओस की बूंदों की तरह जन्म लेती रहीं जाने कब सिमट भी गई,
हुआ जब सामना सच्चाई से तो आईना देखना दिखाना छोड़ दिया हमने I
हमारा प्यार ही तो था हमारी लिए तकदीर हमारी और प्यार ही खुदा भी,
झुक जाता था जो कभी उसके सज़दे में वो सर झुकाना छोड़ दिया हमने I
कसम से बड़ा ही गुरुर था बड़ा नाज़ था हमें वफाओं पर और ऐतबार भी,
टूटा जब दिल, दिल की गहराइयों से तो खुद पर इतराना छोड़ दिया हमने I
न ताकत न रुतबा न पैसा, कमजोर थे इसलिए ही डरते थे जिन्दगी से,
बचा-खुचा मान भी जाता रहा अब क्या डर, सो डरना डराना छोड़ दिया हमने I
काली रातों के घने अँधेरे, उजालों से कहीं बेहतर लगने लगे हमें अब तो,
रास्ते जो घूम कर जाते थे मन्जिल पे, उन पर आना जाना छोड़ दिया हमने I
दिल की बाज़ी तो हमने भी लगाईं थी कभी बड़े दिल से दिल देकर उनको,
मगर क्या मिला, बस दर्द-ए-दिल, तो यहीं पर ये फ़साना छोड़ दिया हमने I
मेरी शायरी मेरी गजलों में न मिलेगी पहले सी ताज़गी अब कभी “चरन ”
असली चेहरा सामने है, अब शराफत का वो ढोंग रचाना छोड़ दिया हमने II
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