जीवन में निर्भयता आनी चाहिए। भय पाप है, निर्भयता जीवन है। जीवन में अगर निर्भयता आ जाय तो दुःख, दर्द, शोक, चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं। भय अज्ञानमूलक है, अविद्यामूलक है और निर्भयता ब्रह्मविद्यामूलक हैं। जो पापी होता है, अति परिग्रही होता है वह भयभीत रहता है। जो निष्पाप है, परिग्रह रहित है अथवा जिसके जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता है वह निर्भय रहता है।
जिसके जीवन में दैवी लक्षण हैं वह यहाँ भी सुखी रहता है और परलोक भी उसके लिए सुखमय हो जाता है। जिसके जीवन में दैवी लक्षण की कमी है वह यहाँ भी दुःखी रहता है और परलोक में भी दुःख पाता रहता है। जीवन में अगर सुख, चैन, आराम, अमन-चमन चाहिए तो 'अमन होना पड़ेगा। अमन माना मन के संकल्प-विकल्प कम हों। अमनी भाव को प्राप्त हो तो जीवन में चमन बढ़ता है।
मनुष्य की वास्तविक अंतरात्मा इतनी महान् है कि जिसका वर्णन करते वेद भगवान भी 'नेति.... नेति.....'पुकार देते हैं। मानव का वास्तविक तत्त्व, वास्तविक स्वरूप ऐसा महान् है लेकिन भय ने, स्वार्थ ने, रजो-तमोगुण के प्रभाव ने उसे दीन-हीन बना दिया है।
दुःख मनुष्य का स्वभाव नहीं है इसलिए वह दुःख नहीं चाहता है। सुख मनुष्य का स्वभाव है इसलिए वह सुख चाहता है। जैसे, मुँह में दाँत रहना स्वाभाविक है तो कभी ऐसा नहीं होता कि दाँत निकालकर फेंक दूँ। जब तक दाँत तन्दुरुस्त रहते हैं तब तक उन्हें फेंकने की इच्छा नहीं होती। भोजन करते वक्त कुछ अन्न का कण, सब्जी का तिनका दाँतों में फँस जाता है तो लूली (जिह्वा) बार-बार वहाँ लटका करती है। जब तक वह कचरा निकला नहीं जाता तब तक चैन नहीं लेती। क्योंकि दाँतों में वह कचरा रहना स्वाभाविक नहीं है।
ऐसे ही सुख तुम्हारे जीवन में आता है तो कोई हर्ज नहीं है लेकिन दुःख आता है तो उसे निकालने के लिए तुम तत्पर हो जाते हो। दाँतों में तिनका रहना अस्वाभाविक लगता है वैसे हृदय में दुःख रहना तुम्हें अस्वाभाविक लगता है। दुःख होता है रजो-तमोगुण की प्रधानता से।
भगवान कहते हैं कि भय का सर्वथा अभाव कर दें। जीवन में भय न आवे। निर्भय रहें। निर्भय वही हो सकता है जो दूसरों को भयभीत न करें। निर्भय वही रह सकता है जो निष्पाप होने की तत्पर हो जाय। जो विलासरहित हो जायगा वह निर्भय हो जायगा।
निर्भयता ऐसा तत्त्व है कि उससे परमात्म-तत्त्व में पहुँचने की शक्ति आती है। किसी को लगेगा कि 'बड़े-बड़े डाकू लोग, गुन्डा तत्त्व निर्भय होते हैं....' नहीं नहीं..... पापी कभी निर्भय नहीं हो सकता। गुन्डे लोग तो कायरों के आगे रोब मारते हैं। जो लोग मुर्गियाँ खाकर महफिल करते हैं, दारू पीकर नशे में चूर होते हैं, नशे में आकर सीधे-सादे लोगों को डाँटते हैं तो ऐसी डाँट से लोग घबरा जाते हैं। लोगों की घबराहट का फायदा गुन्डे लोग उठाते हैं। वास्तव में चंबल की घाटी का हो चाहे उसका बाप हो लेकिन जिसमें सत्त्वगुण नहीं है अथवा जो आत्मज्ञानी नहीं है वह निर्भय नहीं हो सकता। निर्भय वही आदमी होगा जो सत्त्वगुणी हो। बाकी के निर्भय दिखते हुए लोग डामेच होते हैं, पापी और पामर होते हैं। भयभीत आदमी दूसरे को भयभीत करता है। डरपोक ही दूसरे को डराता है।
जो पूरा निर्भय होता है वह दूसरों को निर्भय नारायण तत्त्व में ले जाता है। जो डर रहा है वह डरपोक है। डामेच और गुंडा स्वभाव का आदमी दूसरों का शोषण करता है। निर्भीक दूसरों का शोषण नहीं करता, पोषण करता है। अतः जीवन में निर्भयता लानी चाहिए
जिसके जीवन में दैवी लक्षण हैं वह यहाँ भी सुखी रहता है और परलोक भी उसके लिए सुखमय हो जाता है। जिसके जीवन में दैवी लक्षण की कमी है वह यहाँ भी दुःखी रहता है और परलोक में भी दुःख पाता रहता है। जीवन में अगर सुख, चैन, आराम, अमन-चमन चाहिए तो 'अमन होना पड़ेगा। अमन माना मन के संकल्प-विकल्प कम हों। अमनी भाव को प्राप्त हो तो जीवन में चमन बढ़ता है।
मनुष्य की वास्तविक अंतरात्मा इतनी महान् है कि जिसका वर्णन करते वेद भगवान भी 'नेति.... नेति.....'पुकार देते हैं। मानव का वास्तविक तत्त्व, वास्तविक स्वरूप ऐसा महान् है लेकिन भय ने, स्वार्थ ने, रजो-तमोगुण के प्रभाव ने उसे दीन-हीन बना दिया है।
दुःख मनुष्य का स्वभाव नहीं है इसलिए वह दुःख नहीं चाहता है। सुख मनुष्य का स्वभाव है इसलिए वह सुख चाहता है। जैसे, मुँह में दाँत रहना स्वाभाविक है तो कभी ऐसा नहीं होता कि दाँत निकालकर फेंक दूँ। जब तक दाँत तन्दुरुस्त रहते हैं तब तक उन्हें फेंकने की इच्छा नहीं होती। भोजन करते वक्त कुछ अन्न का कण, सब्जी का तिनका दाँतों में फँस जाता है तो लूली (जिह्वा) बार-बार वहाँ लटका करती है। जब तक वह कचरा निकला नहीं जाता तब तक चैन नहीं लेती। क्योंकि दाँतों में वह कचरा रहना स्वाभाविक नहीं है।
ऐसे ही सुख तुम्हारे जीवन में आता है तो कोई हर्ज नहीं है लेकिन दुःख आता है तो उसे निकालने के लिए तुम तत्पर हो जाते हो। दाँतों में तिनका रहना अस्वाभाविक लगता है वैसे हृदय में दुःख रहना तुम्हें अस्वाभाविक लगता है। दुःख होता है रजो-तमोगुण की प्रधानता से।
भगवान कहते हैं कि भय का सर्वथा अभाव कर दें। जीवन में भय न आवे। निर्भय रहें। निर्भय वही हो सकता है जो दूसरों को भयभीत न करें। निर्भय वही रह सकता है जो निष्पाप होने की तत्पर हो जाय। जो विलासरहित हो जायगा वह निर्भय हो जायगा।
निर्भयता ऐसा तत्त्व है कि उससे परमात्म-तत्त्व में पहुँचने की शक्ति आती है। किसी को लगेगा कि 'बड़े-बड़े डाकू लोग, गुन्डा तत्त्व निर्भय होते हैं....' नहीं नहीं..... पापी कभी निर्भय नहीं हो सकता। गुन्डे लोग तो कायरों के आगे रोब मारते हैं। जो लोग मुर्गियाँ खाकर महफिल करते हैं, दारू पीकर नशे में चूर होते हैं, नशे में आकर सीधे-सादे लोगों को डाँटते हैं तो ऐसी डाँट से लोग घबरा जाते हैं। लोगों की घबराहट का फायदा गुन्डे लोग उठाते हैं। वास्तव में चंबल की घाटी का हो चाहे उसका बाप हो लेकिन जिसमें सत्त्वगुण नहीं है अथवा जो आत्मज्ञानी नहीं है वह निर्भय नहीं हो सकता। निर्भय वही आदमी होगा जो सत्त्वगुणी हो। बाकी के निर्भय दिखते हुए लोग डामेच होते हैं, पापी और पामर होते हैं। भयभीत आदमी दूसरे को भयभीत करता है। डरपोक ही दूसरे को डराता है।
जो पूरा निर्भय होता है वह दूसरों को निर्भय नारायण तत्त्व में ले जाता है। जो डर रहा है वह डरपोक है। डामेच और गुंडा स्वभाव का आदमी दूसरों का शोषण करता है। निर्भीक दूसरों का शोषण नहीं करता, पोषण करता है। अतः जीवन में निर्भयता लानी चाहिए
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