Saturday, April 2, 2016

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नही जाता!
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नही जाता!

सब कुछ तो है, क्या ढूंढ़ती रहेती है निगाहें?
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नही जाता!

वो एक ही चेहरा तो नही सारे जहां में?
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नही जाता!

मैं अपनी ही उल्ज़ी हुई राहो का तमाशा;
जाते है जिधर सब, मैं उधर क्यूँ नही जाता!

वो ख्वाब जो बरसो से ना चेहरा, ना बदन है;
वो ख्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नही जाता!


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