Monday, April 20, 2015

 दिन सलीके से उगा .....
....रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ
  ..... रोज़ ज़माने से रही ।

चंद लम्हों को ही बनती हैं
..... मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी.... रोज़ .... तो
 ...... तस्वीर बनाने से रही ।




फ़ासला, चांद बना देता है...
...... हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो....
....... आने से रही ।

शहर में सबको कहाँ मिलती है ...
..... रोने की जगह
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ ....
..... हँसने - हँसाने से रही ।





जो खो जाता हैं मिलकर ज़िंदगी में....
..... ग़ज़ल है नाम
 ...'......उसका शायरी में ।

 निकल आते हैं आँसू........
........ हँसते--हँसते
  ये किस ग़म की कसक है.....
....... हर ख़ुशी में ।

कहीं चेहरा, कहीं आँखें .....
......कहीं लब.....
हमेशा एक मिलता है,
  ......कई में ।

गुजर जाती हैं.......
....यूँ ही उम्र सारी
......किसी को ढूँढ़ते हैं.....
...........हम किसी में ।




तेरी ज़ुल्फ़ों से
           जुगनू
 इक्तिसाबे-नूर करता हैं

ये बंजारा इसी बन में
      थकावट
              दूर करता है ।


No comments:

Post a Comment