Sunday, August 30, 2015

मुझे याद है......
मेरी बस्ती के सब पेड़, पर्वत, हवाएँ , परिन्दे ........
मेरे साथ रोते थे
हँसते थे ।

मेरे ही दुख में
दरिया किनारों पे सर पटकते थे

मेरी ही ख़ुशियों में
फूलों पे शबनम के मोती चमकते थे

नदी मेरे अंदर से होके गुज़रती थी
आकाश.....!
आँखों का धोका नहीं था

ये बात उन दिनों की है
जब इस ज़मीं पर
इबादत घरों की ज़रूरत नहीं थी
मुझी में......
..... ख़ुदा था.........!!


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