Thursday, September 25, 2014

 जब बहारें चमन में खिलती हैं
तेरी जुल्फों की बात होती हैं

ये जो सुलझें तो दिन निकलता हैं
ये जो उलझें तो रात होती हैं ।




फैला हुआ है रंग फिजाओं मे तूर का
आँचल में चांदनी है कि चेहरा है नूर का ।

महका हुआ बदन है कि गुलशन रुका हुआ
ये रुप है कि रुप का दरिया रुका हुआ ।


 सिमटा हुआ बदन है हया से कुछ इस तरह
सहमा हुआ चिराग़ हो जिस तरह ।
नज़दीक आके भी आलम है दूर का ।


आँचल हटा के, हुस्न की ख़ैरात दीजिये
ढलने लगी है रात कोई बात कीजिये
है क्या क़ुसूर फिर भी इस बेक़ुसूर का.......


 हम ऐसी महफ़िल में कैसे जायें
जहां के मंज़र हमें जलायें ।

अगर है जलना जलेंगे तनहा
न तुमसे मिलते न ऐसे होते ।


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