Sunday, September 28, 2014

कुछ कर गुजरने की वो ललक न रही
सपने टिके थे जिन पे वो पलक न रही ।
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  लिपटी है गुलाबों से हंसी रात की रानी
खिलती है , मगर मीठी महक न रही ।



: फलों से लदी शाख के सपने हजार है
झुकती है , फिर भी वो लचक न रही ।
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चंदा ने बिछायी नर्म किरणों की ये चादर
बिखरती चांदनी में वो चमक न रही ।
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आती है यूं तो अब भी इन होठों पे हंसी
ये और बात है कि वो खनक न रही ।

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