Thursday, October 30, 2014

अच्छा था वो वक़्त पैसे कम हुआ करते थे,
दोस्त कमीने थे साले गम भी कम हुआ करते थे.
पास फेल का मौसम तो दो दिन की कहानी थी,
बाकी सेमेस्टर तो बस जिंदाबाद जवानी थी.
एग्जाम से पहले दो घंटे जब हम सब सबकी लेते थे,
और कुछ ही घंटो बाद सब चादर तान के सोते थे.
किसी ने भूल से पूछ दिया कि पेपर कैसा गया,
तो माँ बहेन के नारों से उसका मन भर देते थे.
आधी रात में चाय की तलब स्टेशन तक ले जाती थी,
और चाय भी क्या चाय थी जो धुंए में घुल जाती थी.
बर्थडे वाली शाम जो ढेरों खुशियाँ लाती थी,
जब मार मार के यार की तशरीफ सुजाई जाती थी.
बारिश की दो बूँदें भी एक ही संदेशा लाती थीं,
"भाई मौसम तो दारु वाला है" की धुन कानो में घुल जाती थी
दोस्ती का जज्बा जब दारू में घुल जाता था,
तो गली का साला कुत्ता भी उसका गवाह बन जाता था.
अब सब कुछ ज्यादा ज्यादा है तब कम भी अच्छा लगता था,
कमीनो के साथ तो साला गम भी अच्छा लगता था.


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