कोई छाँव,तो कोई शहर ढूंढ़ता है
मुसाफिर हमेशा,एक घर ढूंढ़ता है...
बेताब है जो,सुर्ख़ियों में आने को
वो अक्सर अपनी,खबर ढूंढ़ता है...
हथेली पर रखकर,नसीब अपना
क्यूँ हर शख्स,मुकद्दर ढूंढ़ता है...
जलने के,किस शौक में पतंगा
चिरागों को जैसे,रातभर ढूंढ़ता है...
उन्हें आदत नहीं,इन इमारतों की
ये परिंदा तो,कोई शहर ढूंढ़ता है...
अजीब फ़ितरत है,उस समुंदर की
जो टकराने के लिए,पत्थर ढूंढ़ता है...!!
मुसाफिर हमेशा,एक घर ढूंढ़ता है...
बेताब है जो,सुर्ख़ियों में आने को
वो अक्सर अपनी,खबर ढूंढ़ता है...
हथेली पर रखकर,नसीब अपना
क्यूँ हर शख्स,मुकद्दर ढूंढ़ता है...
जलने के,किस शौक में पतंगा
चिरागों को जैसे,रातभर ढूंढ़ता है...
उन्हें आदत नहीं,इन इमारतों की
ये परिंदा तो,कोई शहर ढूंढ़ता है...
अजीब फ़ितरत है,उस समुंदर की
जो टकराने के लिए,पत्थर ढूंढ़ता है...!!
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