ले गए जो मेरे ज़िस्म से जान तक
वो नहीं मानते इसका एहसान तक ।
जान पहचान उनसे हुई तो मगर
बात बस रह गई जान-पहचान तक ।
घर हमारा है , लेकिन यहां के सभी
मानते ही नहीं हमको मेहमान तक ।
कोई खरीददार नहीं है तो हम क्या करें
रोज़ जाते तो हैं घर से दुकान तक ।
क्या नहीं मिल रहा है सरेबाजार यहां आजकल
बिक रहा है सरे आम इंसान तक ।
मौलवी-पंडितों ने ये क्या कर दिया
ले गये मेरे भीतर का इंसान तक ।
कोई इंसान बनने को राजी नहीं
रह गये लोग सिर्फ हिन्दू-मुसलमान तक ।
वो नहीं मानते इसका एहसान तक ।
जान पहचान उनसे हुई तो मगर
बात बस रह गई जान-पहचान तक ।
घर हमारा है , लेकिन यहां के सभी
मानते ही नहीं हमको मेहमान तक ।
कोई खरीददार नहीं है तो हम क्या करें
रोज़ जाते तो हैं घर से दुकान तक ।
क्या नहीं मिल रहा है सरेबाजार यहां आजकल
बिक रहा है सरे आम इंसान तक ।
मौलवी-पंडितों ने ये क्या कर दिया
ले गये मेरे भीतर का इंसान तक ।
कोई इंसान बनने को राजी नहीं
रह गये लोग सिर्फ हिन्दू-मुसलमान तक ।
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