Tuesday, September 9, 2014

 ले गए जो मेरे ज़िस्म से जान तक

वो नहीं मानते इसका एहसान तक ।


जान पहचान उनसे हुई तो मगर

बात बस रह गई जान-पहचान तक ।

घर हमारा है , लेकिन यहां के सभी

मानते ही नहीं हमको मेहमान तक ।


 कोई खरीददार नहीं है तो हम क्या करें
रोज़ जाते तो हैं घर से दुकान तक ।

क्या नहीं मिल रहा है सरेबाजार यहां आजकल
बिक रहा है सरे आम इंसान तक ।


मौलवी-पंडितों ने ये क्या कर दिया
ले गये मेरे भीतर का इंसान तक ।

कोई इंसान बनने को राजी नहीं
रह गये लोग सिर्फ हिन्दू-मुसलमान तक ।

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