Saturday, October 25, 2014

 उन्हीं को ढूंढ रही है निगाहे-शौक़ मेरी
जो बन के अजनबी महफ़िल में आये बैठे हैं ।

निगाह नीची किए सर झुकाए बैठे हैं
यही तो हैं जो मेरा दिल चुराये बैठे हैं ।

रुका रुका सा तबस्सुम झुकी झुकी नज़रें
जो राज़ छुप नहीं सकता छुपाए बैठे हैं ।

बड़े हसीन तसव्वुर में खो गया हूं मैं
कि जैसे वो मेरे पहलू में आए बैठे हैं ।
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फलों से लदी शाख के सपने हजार है
झुकती है , फिर भी वो लचक न रही ।
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चंदा ने बिछायी नर्म किरणों की ये चादर
बिखरती चांदनी में वो चमक न रही ।
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आती है यूं तो अब भी इन होठों पे हंसी
ये और बात है कि वो खनक न रही ।



 कुछ कर गुजरने की वो ललक न रही
सपने टिके थे जिन पे वो पलक न रही ।
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  लिपटी है गुलाबों से हंसी रात की रानी
खिलती है , मगर मीठी महक न रही ।



 इंतिजार है मुझे नफ़रत करने वाले कुछ नए लोगो का
पुराने नफ़रत करने वाले तो अब मुझे पसंद करने लगे है
।।

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