Saturday, October 25, 2014

सर झुकाने से नमाज़ें अदा नहीं होती...!!!
दिल झुकाना पड़ता है इबादत के लिए...!
पहले मैं होशियार था,
इसलिए दुनिया बदलने चला था,
आज मैं समझदार हूँ,
इसलिए खुद को बदल रहा हूँ।
 बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर...
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।
 ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है
 जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक मुद्दत से मैंने
 न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले .!!..



कोई मुझ से पूछ बैठा
'बदलना' किस को कहते हैं?
सोच में पड़ गया हूँ मिसाल किस की दूँ ?
"मौसम" की या "अपनों" की
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 हम जितने लड़खड़ाये उतने संभल गये है,
पहले तो खंडहर थे अब बन महल गये हैं,
ईमान बदलते हैं, मौसम भी बदलते हैं-
तुम क्यों नहीं बदलते, जब हम बदल गये हैं।


 बचपन में जब धागों के बीच माचिस
को फसाकर फोन-फोन खेलते थे...

तो मालूम नहीं था एक दिन इस फोन
में जिन्दगी सिमटती चली जायेगी...!!



 दिल की ख्वाहिश को नाम क्या दूं,
प्यार का उसे पैगाम क्या दूं,
इस दिल में दर्द नहीं, उसकी यादें हैं,
अब यादें ही दर्द दे,
तो उसे क्या इल्ज़ाम दूं.

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