Tuesday, July 7, 2015

" कुछ इशारे थे.. जिन्हें दुनिया .. समझ बैठे थे हम...
उस निगाह-ए-आशना को .. क्या.. समझ बैठे थे हम ;
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रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर .. अपनी ही नज़र में.. हो गये....
वाह री ग़फ़्लत तुझे .. अपना.. समझ बैठे थे हम ;
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होश की तौफ़ीक़ भी .. कब अहल-ए-दिल को हो सकी...
इश्क़ में अपने को .. दीवाना .. समझ बैठे थे हम ;
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बेनियाज़ी को तेरी .. पाया सरासर.. सोज़-ओ-दर्द....
तुझ को इक दुनिया से .. बेगाना.. समझ बैठे थे हम ;
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भूल बैठी वो .. निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती ....
उस को भी अपनी तबीयत का .. समझ बैठे थे हम ;
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बातों बातों में.. पयाम-ए-मर्ग भी.. आ ही गया...
उन निगाहों को.. हयात-अफ्ज़ा.. समझ बैठे थे हम ;
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रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़.. मानूस-ए-जहाँ.. होता चला...
ख़ुद को तेरे हिज़्र में .. तनहा.. समझ बैठे थे हम ;
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हुस्न को इक हुस्न की .. समझे नहीं.. और ऐ 'फ़िराक़'...
मेहरबाँ.. नामेहरबाँ .. क्या क्या... समझ बैठे थे हम...."


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