Thursday, July 23, 2015

मुन्नवर राणा जी की "माँ" शीर्षक पर कविता है हमे बहुत अच्छी लगती है |

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी ख़फ़ा नहीं होती |

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है |

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू,
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना |

ऐ अंधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया |

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई,
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई |

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ,
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ |

अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है |

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है |

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है |

'मुनव्वर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना,
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती |

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