Thursday, July 2, 2015

 कभी दिल्लगी कभी संगदिली, कितने सितम तुमने किए
कभी की वफा, कभी थी खफा, कितने करम तुमने किए

उस हुस्न के दीदार पे जांनिसार हों हर जनम में हम
जो रूह बनके जुदा हुई, इस जनम में जां उसने लिए

ये इश्क का इंसाफ है, कि तेरी हर खता मुआफ है
इस गुनाह को कुबूल कर खुद को सजा हमने दिए

ये चांद भी तेरे नूर का एक मिसाल है इस जहां में
हम रातभर यूं ही जागकर तुझे देखकर जीते गए



 हुस्न क्या चीज है, उन आंखों में डूबकर जाना

इश्क क्या होता है, अश्कों को बहाकर जाना

वो मुसलसल रहती है मेरे जिस्मो-जां में

अपने गजलों के लफ्जों को पढ़कर जाना



लुत्फ मिलता है गमे-वस्ल के मंजर में भी

हिज्र में चांद-सितारों के संग जागकर जाना


No comments:

Post a Comment