Sunday, August 9, 2015

मैं, शायर नहीं,
क्योंकि शायर तो लोगों के साथ रहकर भी,
तन्हा रहता है,
मैं, उसकी क़लम की स्याही की एक बूंद हूं,
जिसके निशां के धब्बे,
जिंदगी के पन्नों पर है,
ख़ूब सिखाया तेरे धोखे ने,
फिर भी क़लम ख़ामोश रही मेरी,
सड़क किनारे चलता रहा,
किसी हादसे से बचकर,
बेख़बर थी वो,
मुझसे बिछड़ कर,
मिली वो एक दिन,
जैसे अनजान सी थी,
फिर भी क़लम ख़ामोश रही मेरी,
मेरी क़िताबे मेरा बैग सब महफूज़ थे,
मगर बेबस था स्कूल मेरा,
कभी जो पढ़ती थी बच्चियां वहां,
आज घूर कर देखती है वो,
किससे बयां करुं,
उनकी मासूम आंखों की नज़रों को,
फिर भी क़लम ख़ामोश रही मेरी,
कई झूठ बोले,
मगर, खुद से कभी सच ना कहा,
शहर के साथ नाम भी बदलता रहा,
सुबह के उजाले में,
बीते अंधेरे के ग़मों को तलाशता रहा,
फिर भी क़लम मेरी ख़मोश रहती,
छत से तंग गलियों बड़ी बेसब्री से देखता,
ख़ुशी से बादल रोते,
साथ में रोते हम भी,
इन पलों को संजो कर रखता कैसे,
शब्दों को आकृति देता कैसे,
फिर भी क़लम मेरी ख़मोश रहती,
दौलत थी पर सहारा ना था,
घर बड़ा बहुत था मगर, खाली था,
समंदर नजदीक था,
लहरें दूर थी,
किसे अपना राज़दार बनाता,
जिंदगी में कहने के लिए बहुत कुछ था,
एक डायरी ही थी,
जिस पर कुछ लिखता,
फिर भी क़लम मेरी ख़मोश रहती,

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