Sunday, November 2, 2014

 ग़रीबी क्यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है

मैं उन आँखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज भी आदी बताती है.



 सरकारी बस में मुसाफ़री नहीं ….
सरकारी स्कुल में सिक्षा नहीं …
सरकारी अस्पतालमे इलाज नहीं …
फिर भी आजके नोजवानो को नोकरी चाहिए सिर्फ सरकारी …..


 लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं



 मुद्दत से तमन्ना हुई अफसाना न मिला ……
हम खोजते रहे मगर ठिकाना न मिला …………..
लो आज फिर चली गई जिंदगी नजरो के सामने से ……
और उसे कोई रुकने का बहाना न मिला ……………………….


ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,
पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें|

ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो,
फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें|


No comments:

Post a Comment