प्रशन:-प्रसाद में भगवान क्या खाते हैं?
उत्तर:-कोई कहता हैं की सुक्ष्म रूप से प्रभु प्रसाद में से भोग लगाते हैं। कोई कहता हैं प्रभु केवल सुगंध स्वीकार करते हैं।हमारे ख्याल से यह सब तथ्य सही हो सकते हैं। परन्तु सही मायने से देखे तो प्रसाद में भगवान हमारा अहंकार खाते हैं और प्रसाद लौटा देते हैं। जब भी हम प्रसाद चडाने जाते हैं तो क्या कहते हैं की यह फल,मेवे,मिठाई "मैं लेकर आया हूँ" परन्तु जब इन को प्रभु के प्रति भोग में चढ़ा दिया जाता हैं तो मैं और मेरा समाप्त हो जाता हैं बन जाता हैं "प्रभु का प्रसाद"।यानि प्रभु ने "मैं" और "मेरा" के रूप में जो अभिमान था वह खा लिया जो बाकि रहा वह "अमृत रूपी प्रसाद"।🙏
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परोपकार सब सुखों का मूल:
~~~~~~~~~~~~~~~
एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले
तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा
अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण
को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।
जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।
किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।
अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण
की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ
गयी
अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण
को मूल्यवान एक माणिक दिया।
ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराण
घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,
ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण
उसे नींद आ गयी, इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल
लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ,
ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।
ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।
सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताश हुई और मन
ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।
अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई। उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।
तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?
यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि"दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ?
प्रभु की यह कैसी लीला है "?
ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है,
और वह छूटने के लिए तड़प रही है । ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग
तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस
मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।
यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।
तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।
ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!
तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ”
लुटेरा भयभीत हो गया।
उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे
पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब
जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।
इससे डरकर
वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे
लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे
वापस कर दी।
यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है?
जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक
नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।
श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह
अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा।
किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे
दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा।
इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय
में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप
ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते
हैं।
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🙏Jay Shri Swaminarayan🙏
उत्तर:-कोई कहता हैं की सुक्ष्म रूप से प्रभु प्रसाद में से भोग लगाते हैं। कोई कहता हैं प्रभु केवल सुगंध स्वीकार करते हैं।हमारे ख्याल से यह सब तथ्य सही हो सकते हैं। परन्तु सही मायने से देखे तो प्रसाद में भगवान हमारा अहंकार खाते हैं और प्रसाद लौटा देते हैं। जब भी हम प्रसाद चडाने जाते हैं तो क्या कहते हैं की यह फल,मेवे,मिठाई "मैं लेकर आया हूँ" परन्तु जब इन को प्रभु के प्रति भोग में चढ़ा दिया जाता हैं तो मैं और मेरा समाप्त हो जाता हैं बन जाता हैं "प्रभु का प्रसाद"।यानि प्रभु ने "मैं" और "मेरा" के रूप में जो अभिमान था वह खा लिया जो बाकि रहा वह "अमृत रूपी प्रसाद"।🙏
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परोपकार सब सुखों का मूल:
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एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले
तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा
अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण
को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।
जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।
किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।
अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण
की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ
गयी
अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण
को मूल्यवान एक माणिक दिया।
ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराण
घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,
ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण
उसे नींद आ गयी, इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल
लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ,
ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।
ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।
सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताश हुई और मन
ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।
अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई। उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।
तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?
यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि"दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ?
प्रभु की यह कैसी लीला है "?
ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है,
और वह छूटने के लिए तड़प रही है । ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग
तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस
मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।
यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।
तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।
ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!
तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ”
लुटेरा भयभीत हो गया।
उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे
पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब
जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।
इससे डरकर
वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे
लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे
वापस कर दी।
यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है?
जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक
नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।
श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह
अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा।
किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे
दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा।
इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय
में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप
ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते
हैं।
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🙏Jay Shri Swaminarayan🙏
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