Saturday, November 1, 2014

‬: अपने हाथ से की थी बन्द खिड़कियाँ मैंने
जाने कैसे दर आई घर में हर बला चुपचाप ।

जिसके रूबरू मैंने ज़िंदगी गुज़ारी है
ताक रहा है कुछ दिन से अब वह आईना चुपचाप ।




 मेरी मोहब्बत मेरे दिल की गफलत थी, मैं बेसबब ही उम्र भर तुझे कोसता रहा, आखिर ये बेवफाई और वफ़ा क्या है, तेरे जाने के बाद देर तक सोचता रहा.




ऐसा नहीं के तुझसे मोहब्बत नहीं हमें
ग़म रोज-रोज सहने की आदत नहीं हमें ।

हर बार तेरे सामने सिर झुका लिया
फिर भी देख कि शिकायत नहीं हमें ।



जानते हैं तू भी तनहा हमारे बिन
किसी और से पूछने की जरूरत नहीं हमें ।

तू कत्ल भी करेगा तो आएंगे तेरे ही पास
तेरे बगैर जीने की जो आदत नहीं हमें ।



हम ये देख रहे दूर हो के
हमारी गैरमौजुदगी का दर्द है किसे...
या खुद में खोये है सभी ।

मगर पाया कि ये अपना साया ...
हमीं से बेख़बर है कहीं ।




अगर मतलब निकलता है तो सबकी बात अच्छी है
हमारे शहर में बरसे वही बरसात अच्छी है ।

यहां रोटी के लाले , वहां कपड़ों से नफ़रत
चमकती धूप से तो स्याह काली रात अच्छी है ।

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