Friday, March 27, 2015

 तुम कब मिलोगे मुझको कब दूरियाँ घटेंगी
तुम पास में हो, पर है, इक फ़ासिला बकाया

इस तरह से न करना बातों को ख़त्म अपनी
रह जाने भी दो इक सिलसिला बक़ाया



 समझें किसे अपना, है पराया कौन
चेहरे पे कई चेहरे लगाए हुए हैं लोग

बढ़ा तो लें हाथ दोस्ती के मगर
हाथों से अपने ज़ख्म दबाए हुए हैं लोग




 जो आज मुड़ के ज़रा देखा तो पता चला
कि एक उम्र गुज़ार आए हैं हम

दिल के सिवा पास कुछ भी नहीं
वक़्त का क़र्ज़ उतार आए हैं हम




 क़लम हैरान है कि क्या बयां लिखूं
अपनी जुबां लिखूं, किसीकी दास्ताँ लिखूं

कैसी राह, कौनसी मंज़िल, है ये जुस्तजू किसकी
चलो ज़िन्दगी के सितारों का कारवां लिखूं

ये मज़हब-ओ-शख्सियत कि अजब सी बातें
कौन हो गया है किसपे मेहरबाँ लिखूं

यहाँ तो जज़्बात पर हो जाती है दौलत हावी
हर कोई चला रहा है अपनी दुकाँ लिखूं

है बहारों की सरज़मीं, ख्वाबों सी हसीं
फिर जिसे देखो वो दिखता है क्यूँ परेशाँ लिखूं




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