कुछ घटनाएँ आत्मा को झकझोर देती हैं....
केरल में क्रूरता की बलि चढ़ी
गर्भिणी हथिनी की आत्मकथा
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मैं थी कोई अबला प्राणी
और दैत्य सम संसार था
आहार ढूंढने निकली थी
गर्भस्थ शिशु का भार था
दूर कहीं पर बस्ती देखी
मुझे लगा भल मानस हैं
क्या जानूँ मैं निरीह पशु
वो विकराल भयानक हैं
चल पड़ी मैं शरण माँगने
पर हृदय स्पंदन करता था
कोख में धारे बालगणेश
जो मेरे भरोसे पलता था
जात से 'आदम' लगते थे
आस में अंतस आतुर था
कुछ फल बस माँग लिए
भ्रूण भूख से व्याकुल था
इतने में 'वो' फल ले आया
हाथ बढ़ाया मुझे खिलाया
खाते ही कुछ चोट हुआ
ज्वाला-सा विस्फोट हुआ
लाल मेरा तू घबराना मत
अकुलायी मैं भरमाती थी
यहाँ वहाँ मैं दौड़ी भागी
पानी पानी! चिल्लाती थी
कालकूट-सी विष अग्नि
अन्धकार बस दिखते थे
कराह रही थी पीड़ा से
वो आदम सारे हँसते थे
निर्ममता यह मानव बुद्धि
मैं क्या जानूँ वनप्राणी थी
भीख मिली एक फल की
'कीमत' बड़ी चुकानी थी
पौधे हिरणें हे रवि किरणें
कोई तो जलकुंड बता दो
नन्हा बालक सहमा होगा
कोई तो जलकुंड बता दो
जाने किसने सुना विलाप
जाने किसको थाह मिली
मदद माँगती इस माँ को
एक 'नदी' तब राह मिली
शीतल जल की धार लिए
सुख आलिंगन करती थी
गोद बिठाए रही अंत तक
वह मेरा क्रंदन सुनती थी
माँ की पीड़ा माँ ही जाने
जलअंचल में शरण दिया
रक्तपात और घात मवाद
जलप्रवाह ने भरण किया
उदर डुबाए जलधारा में
माँ का ढाँढ़स गिरता था
पुकारती मैं रही निरन्तर
मौन ही उत्तर मिलता था
छोड़ गया संवाद अधूरा
तीन दिवस थे बीत गए
पशुत्व मेरा अपराध था
मानव रे तुम जीत गए !
मानव रे तुम जीत गए !
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