Saturday, December 27, 2014

 इस अंजान शहर में कोई पहचान वाला नाम नहीं....
भीड़ में इंसान के चला हूं , मगर कोई चेहरा आम नहीं ।

कैसे यहां बेहोशी के आलम में लूटा दिये मौसम किसी ने.....
मगर प्यास बुझा दे दिल की , ऐसा तो कोई जाम नहीं ।



नज़र में दूर तलक तश्नगी का सहरा है
कोई बताए ये बादल कहाँ बरसता है ।

न फेंक नफ़रत के पत्थर मेरी तरफ़ ऐ दोस्त
तुझे ख़बर नहीं शायद ये काम मेरा है ।

बस इक सदा कि भटकता हुआ मुसाफ़िर हूँ
बस इक चिराग़ बड़ी दूर तक अँधेरा है ।

मेरी निगाह में है डूबता सूरज
मगर ये वक़्त किसी के लिए सुनहरा है ।

न जाने किसने ये आईना रूबरू रक्खा
ये क्या हुआ कि न मैं हूँ न मेरा चेहरा है ।



खो न जाएँ कहीं ये तहरीरें
एक चेहरा किताब-सा ढूँढूँ ।

ख़ुद को पा लूँ तो ऐ खुशनुमा ज़िदगी........
फिर मैं तेरी इक इक अदा ढूँढूँ ।



मैं ताज़वाल था , मिट-मिटकर फिर उभरता रहा......

गवां-गवां के मुझे ज़िंदगी ने पाला है ।



फिर ऐ निगारे सुबह तेरी जुस्तजू करें...
क़िस्मत में तू नहीं न सही, आरज़ू करें ।

अपने चराग़, अपना लहू, अपनी अंजूमन...
ए लम्हाए ख़ुलूस किसे सुर्ख़रू करें ।

अपने बदन के ज़ख़्म कहाँ तक छुपाएँ हम....
पुराना लिबास है, कहाँ तक रफ़ू करें ।


: हमने दश्त भी छाने हैं बहुत
वर्ना कुछ ख़्वाब सुहाने हैं बहुत ।

एक शीशे की इमारत हूँ मैं
टूट जाने के बहाने हैं बहुत ।



 फिर कोई दूसरा ख़ुदा ढूँढूँ
तू भी मुझसा है तुझमे क्या ढूँढूँ ।

धूप का आईना हूँ मैं यारों
किन दरख़्तों का आसरा ढूँढूँ


 क्यों तसल्ली होगी दिल को सुनी-सुनी हौसला अफ़जाई से...
पुराने ज़ख़्म भरे हैं , मगर निशान मिटने का नाम नहीं ।

कैसे गर्दिश में खो गया देखो , वह एक किस्मत का सितारा....
लाखों सूरज जलाकर भी यारों रौशन हमारी शाम नहीं ।।




 उठती है हर तरफ से बुराई पे उंगलियां
अच्छा भी काम दुनिया में करने पे रोक है ।

हर कोई देखता है हिकारत की नज़र से....
बदनाम आदमी के सुधरने पे रोक है ।




समुन्दरों की तलब है उदास मिलता है
वह शख़्स अब भी सराबों के पास मिलता है ।

मेरे वजूद पे हर लम्हा तंज करता हुआ
ये कौन है जो मेरे आसपास मिलता है ।

जो महफिलों में लगाता है कहकहे यारों
कोई न हो तो बहुत बदहवास मिलता है ।

अब और किसको बताऊँ कि मुझ पे क्या गुज़री......
मुझे तो मेरा ख़ुदा भी उदास मिलता है ।।

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